________________
अध्याय।
सुबोधनी टीका।
न तथा कारणकार्थे, कारकसिद्धिस्तु विक्रियाभावात् । ३१५॥
अर्थ--स्पष्ट अर्थ यह है कि " सर्व सत् नित्य ही है " यदि सर्वथा ऐसा ही पक्ष मान लिया जाय, तो कारण और कार्य, दोनों ही नहीं बनते । विक्रियाका अभाव होनेसे कार्य-सिद्धि ही नहीं होती।
___ सर्वथा अनित्य पक्षमें दोषयदि वा सदनित्यं स्यात्सर्वस्वं सर्वथेति किल पक्षः। न तथा क्षणिकत्वादिह क्रियाफलं कारकाणि तत्त्वं च ॥३१॥
अर्थ-अथवा सतको यदि सर्वथा अनित्य ही स्वीकार किया जाय तो वह क्षणिक ठहरेगा । और क्षणिक होनेसे उसमें न तो क्रियाका फल ही हो सकता है, और न कारणता ही आ सकती है।
केवल नित्यानित्यात्मक पक्षमें दोष--- अपि नित्यानित्यात्मनि सत्यपि सति वा न साध्यसंसिद्धिः। तदतावाभावैविना न यस्माद्विशेषनिष्पत्तिः ॥ ३१७ ॥
अर्थ- यदि तत् तत्के भाष, अभावका विचार न करके केवल नित्यानित्यात्मक ही पदार्थ माना जाय, तो भी साध्यकी सिद्धि नहीं हो सकती है, क्योंकि विना तत् अतत्का विचार किये पदार्थमें विशेष बुद्धि ही नहीं हो सकती है।
अथ तद्यथा यथा सत्परिणममानं यदुक्तमस्तु तथा । भवति समीहितसिद्धिविना न तदतद्विवक्षया हि यथा ॥३१८॥
अर्थ-यदि सतू (पदार्थ) परिणमन करता हुआ भी नित्य अनित्य स्वरूप ही माना जाय, और उसमें तत् अतत्की विवक्षा न की जाय तो इच्छित अर्थकी सिद्धि नहीं होसक्ती है । उसे ही नीचे दिखलाते हैं
अपि परिणमनमानं सन्नतदेतत् सर्वथाऽन्यदेवेति । इति पूर्वपक्षः किल विना तदेवेति दुर्निवारः स्यात् ॥ ३१९ ॥ अभि परिणतं यथा सद्दीपशिखा सर्वथा तदेव यथा । इति पूर्वपक्षः किल दुर्धरः महाद्विना न तदिति नयात् ॥२०॥
अर्थ- परिणाशन करता हुआ सत् यही नहीं है जो पहले था किन्तु उससे सर्वथा मिन ही है" इस प्रकारका किया हुआ पूर्व पक्ष ( आशंका ) पिना ततपक्ष के स्वीकार किये दूर नहीं किया जा रक्ता है । इसी प्रकार उस परिणमनशील सत्में दूसरा पूर्वक्ष ऐसा भी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org