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पञ्चाध्यायी।
प्रथम
इसीका खुलासा - अथ तद्यथा विनाशः प्रादुर्भाव विना न भावीति । नियतमभावस्य पुनर्भावेन पुरस्सरत्वाच ॥ २५१ ॥
अर्थ-तीनोंका परस्पर अविनाभाव है, इसी बातको स्पष्ट किया जाता है कि विनाश (व्यय) विना उत्पादके नहीं हो सक्ता । क्योंकि किसी पर्यायका अभाव नियमसे भाव पूर्वक ही होता है।
उत्पादोपि न भावी व्ययं विना वा तथा प्रतीतत्वात् ।
प्रत्यग्रजन्मनः किल भावस्याभावतः कृतार्थत्वात् ॥२५२॥
अर्थ-उत्पाद भी विना व्ययके नहीं हो सकता, क्योंकि ऐसी प्रतीति हैं कि नवीन जन्म लेनेवाला भाव अभावसे ही कृतार्थ होता है।
भावार्थ-किसी पर्यायका नाश होने पर ही तो दूसरी पर्याय हो सकती है । पदार्थ तो किसी न किसी अवस्थामें सदा रहता ही है । इस लिये यह आवश्यक है कि पहली अवस्थाका नाश होने पर ही कोई नवीन अवस्था हो ।
उत्पादध्वंसौ वा द्वावपि न स्तो विनापि तद्भौव्यम् ।
भावस्याऽभावस्य च वस्तुत्वे सति तदाश्रयत्वादा ॥ २५३ ॥
अर्थ-अथवा विना ध्रौव्यके उत्पाद, व्यय भी नहीं होसक्ते, क्योंकि वस्तुकी सत्ता होने पर ही उसके आश्रयसे भाव और अभाव (उत्पाद और व्यय) रह सक्ते है ।
अपि च ध्रौव्यं न स्यादुत्पादव्ययवयं विना नियमात् । ___ यदिह विशेषाभावे सामान्यस्य च सतोप्यभावत्वात् ॥२५४॥
अर्थ-अथवा विना उत्पाद और व्यय दोनोंके ध्रौव्य भी नियमसे नहीं रह सकता है, क्योंकि विशेषके अभावमें सामान्य सत्का भी अभाव ही है।
भावार्थ-वस्तु *सामान्य विशेषात्मक है । विना सामान्यके विशेष नहीं हो सक्ता, और विना विशेषके सामान्य भी नहीं हो सक्ता । उत्पाद, व्यय विशेष हैं, ध्रौव्य सामान्य है। इस लिये विना उत्पाद, व्यय विशेषके ध्रौव्य सामान्य नहीं बन सकता है और इसी प्रकार विना ध्रौव्य सामान्यके उत्पाद व्यय विशेष भी नहीं वन मक्ते हैं ।
सारांशएवं चोत्पादादित्रयस्य साधीयसी व्यवस्थेह ।
नैवान्यथाऽन्यनिन्हववदतः स्वस्यापि घातकत्वाच ॥ २५५ ॥ * सामान्य विशेषात्मा तदर्थोविषयः । * निर्विशेषं हि सामान्यं भवेच्छशविषाणयत् । निस्सामान्य विशेषश्च भवेच्छशविषाणवत् ॥
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