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सुबोधिनी टीका ।
क्षेत्रकी अपेक्षासे अस्ति नास्ति कथन -
क्षेत्रं द्विधावधानात् सामान्यमथ च विशेषमात्रं स्यात् । तत्र प्रदेशमात्रं प्रथमं प्रथमेतरं तदंशमयम् ॥ २७० ॥ अर्थ — वस्तुका क्षेत्र भी दो प्रकारसे कहा जाता है । एक सामान्य, दूसरा विशेष | वस्तुके जितने प्रदेश हैं उन प्रदेशों के समुदायात्मक देशको तो सामान्य क्षेत्र कहते हैं और उसके अंशोंको विशेष क्षेत्र कहते हैं ।
अध्याय । ]
अथ केवलं प्रदेशात प्रदेशमात्रं यदेष्यते वस्तु ।
अस्ति स्वक्षेत्रतया तदंशमात्राऽविवक्षितत्वान्न || २७१ || अर्थ - जिस समय केवल प्रदेशोंके समुदायकी अपेक्षासे देश रूप वस्तु कही जाती है उस समय वह देश रूप स्वक्षेत्रकी अपेक्षासे तो है परन्तु उस देशके अंशोंकी अविवक्षा होनेसे अंशोंकी अपेक्षासे नहीं है ।
अथ केवलं तदेशात्तावन्मात्राद्यदेष्यते वस्तु |
अस्त्यंशविवक्षितया नास्ति च देशाविवक्षितत्वाच्च ॥ २७२॥ अर्थ -- अथवा जिस समय केवल देशके अंशोंकी अपेक्षासे वस्तु कही जाती है उस समय वह अंशोंकी अपेक्षासे तो है, परन्तु देशकी विवक्षा न होनेसे देशकी अपेक्षासे नहीं है।
दृष्टान्त-
संदृष्टिः पटदेश: क्षेत्रस्थानीय एव नास्त्यस्ति ।
शुक्लादितन्तुमात्रादन्यतरस्याविवक्षितत्त्वाद्वा ॥ २७३ ॥
अर्थ - क्षेत्र के लिये दृष्टान्त पट रूप देश है । वह शुक्लादिस्वभाव-तन्तु समुदायकी अपेक्षासे तथा भिन्न भिन्न अंशोंकी अपेक्षासे कथंचित् अस्ति नास्ति रूप है । जिस समय जिसकी विवक्षा ( कहनेकी इच्छा ) की जाती है वह तो उस समय मुख्य होनेसे अस्ति रूप है और इतर अविवक्षित होनेसे उस समय गौण है इसलिये वह नास्ति रूप है । इस प्रकार क्षेत्रकी अपेक्षासे कथंचित् अस्तित्व और नास्तित्व समझना चाहिये ।
कालकी अपेक्षासे अस्ति नास्ति कथन
कालो वर्तनामिति वा परिणमनं वस्तुनः स्वभावेन । सोपि पूर्ववद्वयमिह सामान्यविशेषरूपत्वात् ॥ २७४ ॥
अर्थ — काल नाम वर्तनका है । अथवा वस्तुका स्वभावसे वह काल भी पहले की तरह सामान्य और विशेष रूपसे दो प्रकार है ।
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*आत्मना वर्तमानानां द्रव्याणां निजपर्ययैः वर्तन करणात्कालो भजते हेतुकर्तृताम् ॥ १ ॥
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परिणमन होनेका है ।
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