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पञ्चोध्यायी।
। प्रथम
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एक साथ विवक्षित किये हुए उस अवक्तव्य भङ्गमें फिर स्वभाव की मुख्य विवक्षा की जाय तो पांचवां " स्यात् अस्ति अवक्तव्य " भङ्ग हो जाता है । और उसी अवक्तव्यमें यदि स्वभावको गौण और परभावको मुख्य रीतिसे विवक्षित किया जाय तो छठा ' स्यान्नास्ति अवक्तव्य ' भङ्ग हो जाता है। इसी प्रकार उस अवक्तव्यमें स्वभाव और परभाव दोनोंकी क्रमसे एकवार ही मुख्य विवक्षा रक्खी जाय तो सातवा ' स्यात् अस्ति नास्ति अवक्तव्य ' भङ्ग होजाता है ।
ये सातों ही भङ्ग स्वभाव, परभावकी मुख्यता और गौणतासे होने वाले स्यात् अस्ति, और स्यान्नास्ति इन्हीं दोनोंके विशेष हैं, इस लिये ग्रन्थकारने इन्ही दोनोंका स्वरूप दिखला कर बाकीके भङ्गोंको निकालनेके लिये सङ्केत कर दिया है ।
शङ्काकार--
ननु चान्यतरेण कृतं किमथ प्रायः प्रयासभारेण । अपि गौरवप्रसंगादनुपादेयाच्च वाग्विलसितत्वात् ॥ २८९ ।। अस्तीति च वक्तव्यं यदि वा नास्तीति तत्त्वसंसिध्यै । नोपादानं पृथगिह युक्तं तदनर्थकादिति चेत् ॥ २९० ॥
अर्थ-अस्ति नास्ति दोनोंमेंसे एक ही कहना चाहिये उसीसे काम चल जायगा, न्यर्थके प्रयास ( कष्ट ) से क्या प्रयोजन है.। इसके सिवाय दोनों कहनेसे उल्टा गौरव होता है, तथा वचनोंका आधिक्य होनेसे उसमें ग्राह्यता भी नहीं रहती है। इसलिये तत्त्वकी भले प्रकार सिद्धिके लिये या तो केवल 'अस्ति' ही कहना ठीक है, अथवा केवल 'नास्ति' कहना
- यदि यहांपर कोई यह शङ्का करै कि जिस प्रकार अस्ति नास्ति को एकवार ही क्रमसे रखनेपर तीसरा और अक्रमसे रखनेपर चौथा भंग होजाता है, उसी प्रकार अवक्तव्यके साथ भी एकवार ही अस्ति नास्तिको क्रमसे विवक्षित रखनेपर सातवाँ और अक्रमसे विव. क्षित रखनेपर आठवाँ भंग क्यों नहीं हो जाता ? इसका उत्तर यही है ऐसा करनेसे आठवाँ भंग ' अवक्तव्य-अवक्तव्य ' होगा, और वह अवक्तव्य सामान्यमें गर्भित होनेसे अवक्तव्य मात्र रहता है । इसलिये कुल सात ही भंग होसक्ते हैं । अधिक नहीं होसक्ते । क्योंकि वचनद्वारा कथन शैली सात ही प्रकार होसक्ती है क्योंकि वस्तुधर्मके सात भेद होनेसे सं. शय भी सात ही होसक्ते हैं और उनको दूर करनेकी जिज्ञासा भी सात ही प्रकार होसक्ती है। इसी प्रकार प्रथम द्वितीय चतुर्थ भंगोंके परस्परमें दो दो तीन तीन के संयोगसे और तृतीय पञ्चम षष्ठ सप्तम भंगोंके परस्पर दो २ तीन २ चार २ के संयोगसे जो भंग होते है वे सब इन्हीं सातोंमें गर्मित हैं । " प्रश्नवशादेकत्रवस्तुन्यविरोधेन विधिप्रतिषेधकल्पना सप्तभङ्गी', यह सप्तभंगीका लक्षण है।
अष्टसाहसी
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