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अध्याय । ]
सुबोधिनी टीका
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महासत्ताका स्वरूप -
किन्तु सदित्यभिधानं यत्स्यात्सर्वार्थसार्थसंस्पर्श । सामान्यग्राहकत्वात् प्रोक्ता सन्मानतो महासत्ता ।। २६५ ॥ अर्थ-किन्तु जो सत् सम्पूर्ण पदार्थोंके समूहको स्पर्श करनेवाला है उसे ही महासत्ता के नामसे कहते हैं। वह सामान्य ग्रहण करनेवाला है और उसहीकी अपेक्षासे वस्तु सन्मात्र है |
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भावार्थ - हरएक पदार्थका अस्तित्व गुण जुदा जुदा है, उसी अस्तित्व गुणको 'सत्' इस नामसे भी कहते हैं, क्योंकि उसीसे वस्तुकी सत्ता कायम रहती है । वह सत्गुण समान रीति से सब वस्तुओंमें एक सरीखा है । एक सरीखा होनेसे ही उसे एक भी कह देते हैं और उसीका नाम महासत्ता रखते हैं। वास्तवमें ' महासत्ता' नामक कोई एक पदार्थ नहीं है । केवल समानता की अपेक्षासे इसको एकत्व संज्ञा मिली है ।
अवाकार मचाका स्वरूप---
अविचावान्तरसत्ता सद्द्रव्यं सन्गुणश्च पर्यायः ।
सच्चोत्पादध्वंसः सदिति प्रौव्यं किलेति विस्तारः ॥ २६६ ॥
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अर्थ — अवान्तर सत्ता हरएककी जुदी जुड़ी है । वह भिन्न २ रीतिसे ही कही जाती है । जैसे - सतद्रव्य, सत्गुण, सत्यय, सत्उत्पाद, सत्ध्वंस, सत्यौन्य इस प्रकार और भी लगा लेना चाहिये ।
भावार्थ- सब जगह व्याप कर रहनेवाली सुत्ताको महासत्ता कहते हैं और उस महासत्ताकी अपेक्षा जो थोड़ी जगहमें रहती है उसे अवान्तर सत्ता कहते हैं महासत्ता सामान्य रीति से सत्र पदार्थों में रहती है इसलिये उसकी अपेक्षासे पदार्थों में भेद नहीं है, किन्तु सभी एक कहलाते हैं । परन्तु अवान्तर सत्ता सब पदार्थों में भेद करती है । जैसे - महासत्ताकी अपेक्षा द्रव्य, गुण, पर्याय आदि सभी सतरूप कहलाते हैं, वैसे ही अवान्तर संत्ताकी अपेक्षा भिन्न २ कहलाते हैं । अवान्तर सत्ताकी अपेक्षासे द्रव्यका सत् जुदा है, गुणका जुदा है और पर्यायका जुदा है । द्रव्यमें भी बड़ीका सत् जुदा है, टेबिलका जुदा है तथा कुर्सीका जुदा है । गुणोंमें भी ज्ञानका जुदा है दर्शनका जुदा है और सुखका जुदा है। पर्यायोंमें भी वर्तमान पर्यायका जुदा है भूत पर्यायका जुड़ा है और भविष्यत्का जुदा है । इस प्रकार अवान्तर सत्ताके अनेक भेद होते हैं ।
अस्ति नास्ति कंथन
अयमर्थो वस्तु यदा सदिति महासत्तयावधार्येत । स्यात्तदवान्तरसत्तारूपेणाभाव एव नतु मूलात् ॥ २६७ ॥
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