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अध्याय । ]
सुबोधिनी टीका ।
[ २३
अर्थ- उन शक्तियों में से प्रत्येक शक्तिके अनन्त अनन्त निरंश ( जिसका फिर अंश न हो सके ) अंश होते हैं । हीनाधिक विशेष भेदसे उन अंशोंका परिज्ञान होता है ।
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दृष्टान्त
दृष्टान्तः सुगमोऽयं शुक्लं वासस्ततोपि शुक्लतरम् । शुक्कतमं च ततः स्यादेशाश्चैते गुणस्य शुक्लस्य ॥ ५४ ॥
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अर्थ - एक सफेद कपड़ेका सुगम दृष्टान्त है । कोई कपड़ा कम सफेद होता है, कोई उससे अधिक सफेद होता है और कोई उससे भी अधिक सफेद होता है । ये सब सफेदी के ही भेद हैं । इस प्रकारकी तरतमता ( हीनाधिकता ) अनेक प्रकार हो सक्ती है, इसलिये शुक्ल गुणके अनेक ( अनन्त ) अंश कल्पित किये जाते हैं ।
दूसरा दृष्टान्त---
अथवा ज्ञानं यावज्जीवस्यैको गुणोप्यखण्डोपि । सर्वजघन्यनिरंशच्छेदैरिव खण्डितोप्यनेकः स्यात् ।। ५५ ।।
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अर्थ -- दूसरा दृष्टान्त जीवके ज्ञान गुणका स्पष्ट है । जीवका ज्ञान गुण यद्यपि एक है और वह अखण्ड भी है तथापि सबसे जघन्य अंशोंके भेदसे खण्डित सरीखा अनेक रूप प्रतीत होता है ।
भावार्थ - - सूक्ष्म निगोदिया पर्याप्त जीवका अक्षर के अनन्तर्वे भाग जघन्य ज्ञान है, उस ज्ञानमें भी अनन्त अंश ( अविभाग प्रतिच्छेद ] हैं, उसी निगोदियाकी ऊपरकी उत्तरोत्तर अवस्थाओं में थोड़ी २ ज्ञानकी वृद्धि होती जाती है । द्वीन्द्रिय आदिक त्रस पर्यायमें और भी वृद्धि होती है, बढ़ते २ उस जीवका ज्ञान गुण इतना विशाल हो जाता है कि चराचर जगतकी प्रतिक्षण में होनेवाली सभी पर्यायोंको एक साथ ही स्पष्टता से जानने लगता है । इस प्रकारकी वृद्धि में सबसे जघन्य वृद्धिको ही एक अंश कहते हैं । उसीका नाम अविभाग प्रतिच्छेद है | विचारशील अनुभव कर सक्ते हैं कि एक ही ज्ञान गुण में जवन्य अवस्था से लेकर कहां तक वृद्धि होती है । बस यही क्रमसे होनेवाला वृद्धिभेद सिद्ध करता है कि ज्ञान गुण बहुतसे अंश हैं जो कि हीनाधिक रूपसे प्रतीत होते हैं । इसी प्रकार प्रत्येक गुणके अंश अनन्त २ हैं । इन्हींका नाम अविभाग प्रतिच्छेद है ।
गुणों के अंशोंमें क्रम
देशच्छेदो हि यथा न तथा छेदो भवेद्गुणांशस्य ।
fasiभस्य विभागात्स्थूलो देशस्तथा नं गुणभागः ॥ ५६ ॥
अर्थ - जिस प्रकार देशके छेद ( देशांश ) होते हैं, होते । देशके छेद विष्कंम ( विस्तार - चौड़ाई) क्रमसे होते हैं
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उस प्रकार गुणोंके छेद नहीं और देश एक मोटा पदार्थ
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