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अध्याय ।]
सुबोधिनी टीका। ___ अर्थ-गुणोंके विषयमें बहुतसे वादियोंका विवाद होता है-कोई गुणोंको सर्वथा नित्य बतलाते हैं, और कोई सर्वथा अनित्य बतलाते हैं। इसलिये आवश्यक प्रतीत होता है कि गुणोंके विषयमें नित्यता और अनित्यताका विचार किया जाय ।
जैन सिद्धान्तजैनानामतमेतन्नित्यानित्यात्मकं यथा द्रव्यम् ।
ज्ञेयास्तथा गुणा अपि नित्यानित्यात्मकास्तदेकत्वात् ॥१०८॥
अर्थ-जैनियोंका तो ऐसा सिद्धान्त है कि जिस प्रकार द्रव्य काचेत् नित्य और कथंचित् अनित्य है, उसी प्रकार गुण भी कथंचित् नित्य और कथंचित् अनित्य हैं क्योंकि द्रव्यसे सर्वथा भिन्न गुण नहीं हैं।
गुणोंकी नित्यताका विचार-- तत्रोदाहरणमिदं तद्भावाऽव्ययाद्गुणा नित्याः ।
तदभिज्ञानात्सिई तल्लक्षणमिह यथा तदेवेदम् ।।१०९॥
अर्थ-नित्यका यह लक्षण है कि जिसके *स्व-भावका नाश न हो । यह लक्षण गुणोंमें पाया जाता है इसलिये गुण नित्य हैं, गुणोंके स्व-भावका नाश नहीं होता है। यह गुणोंका लक्षण “ यह वही है " ऐसे एकत्व प्रत्यभिज्ञान द्वारा सिद्ध होता है अर्थात् गुणोंमें यह वही गुण है, ऐसी प्रतीति होती है और यही प्रतीति उनमें नित्यताको सिद्ध करती है।
गुणोंकी नित्यतामें उदाहरणज्ञानं परणामि यथा घटस्य चाकारतः पटाकृत्या।
किं ज्ञानत्वं नष्टं न नष्टमथ चेत्कथं न नित्यं स्यात् ॥११०॥
अर्थ-आत्माका ज्ञान गुण परिणमनशील है। कभी वह घटके आकार होता है तो कभी पटके आकार हो जाता है । घटाकारसे पटाकार होते समय उसमें क्या ज्ञान गुण नष्ट हो जाता है ? नहीं, ज्ञान नष्ट नहीं होता, केवल अवस्थाभेद हो जाता है, वह पहले घटको जानता था अब पटको जानने लगा है इतना ही भेद हुआ है। जानना दोनों अवस्थाओंमें
* तत्त्वार्थसूत्रके " तद्भावाव्ययं नित्यम् ।" इस सूत्रका आशय है ।
* घटाकार और पटाकारका घटज्ञान और पटज्ञानसे प्रयोजन है। शानगुणका यह स्वमाव है कि वह जिस पदार्थको जानता है उसके आकार हो जाता है इसी लिये ज्ञानको दर्पणकी तुलना दी गई है, दर्पणमें भी जिस पदार्थका प्रतिबिम्ब पड़ता है, दर्पण उस पदार्थके आकार होजाता है।
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