________________
अध्याय । ]
सुबोधिनी टीका ।
[ ४५
वात प्रमाण और दृष्टान्त दोनोंसे बाधित है । आमके फलमें एक साथ ही रूप रस, गन्ध, स्पर्श आदिक अनेक गुणों की सत्ता प्रत्यक्ष प्रतीत होती है ।
पक्षान्तर-
अथ चेदिति दोषभयान्नित्याः परिणामिनस्त इति पक्षः । तत्किं स्यान्न गुणानामुत्पादादित्रयं समं न्यायात् ।। १२९ ।। अर्थ-यदि उपर्युक्त दोषोंके भयसे गुणोंको नित्य और परिणामी माना जाय तो फिर गुणों में एक साथ उत्पादादि त्र्य क्यों नहीं होंगे ? अवश्य होंगे।
भावार्थ - द्रव्यकी तरह गुणों में भी उत्पादित्रय होते हैं यह फलितार्थ निकल चुका यही बात पहले कही जा चुकी है।
अपि पूर्व च यदुक्तं द्रव्यं किल केवलं प्रदेशाः स्युः । तत्र प्रदेशवत्त्वं शाकेविशेषश्च कोपि सोपि गुणः ॥ १३० ॥ अर्थ - पहले यह भी शंका की गई थी कि केवल प्रदेश ही द्रव्य कहलाते हैं सो प्रदेश भी, प्रदेशत्व नामक शक्ति विशेष है । वह भी एक गुण है ।
भावार्थ - द्रव्यमें जो पर्याय होती है, उसे व्यञ्जन पर्याय कहते हैं । वह व्यञ्जन पर्याय प्रदेशवत्त्व गुणका विकार है, अर्थात् प्रदेशवत्व गुणकी विशेष अवस्थाका नाम ही व्यञ्जन पर्याय है ।
सारांश
तस्माद्गुणसमुदायो द्रव्यं स्यात्पूर्वसूरिभिः प्रोक्तम् । अयमर्थः खलु देशी विभज्यमाना गुणा एव ॥ १३१ ॥ अर्थ- - इस लिये जो पूर्वाचार्यौ ( अथवा पहले इसी ग्रन्थमें ) ने गुणोंके समुदायको द्रव्य कहा है वह ठीक है । इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि यदि देश ( द्रव्य ) को भिन्न २ विभाजित किया जाय तो गुण ही प्रतीत होंगे।
भावार्थ - गुणों को छोड़कर द्रव्य कोई भिन्न पदार्थ नहीं है । द्रव्यमेंसे यदि एक एक. गुणको भिन्न २ कल्पित करें तो द्रव्य कुछ भी शेष नहीं रहता । और जो सम्पूर्ण द्रव्यकी एक समय में पर्याय ( व्यञ्जन पर्याय ) होती है वह भी प्रदेशवत्व गुणकी अवस्था विशेष है इसलिये गुण समुदाय ही द्रव्य है । यह आचायका पूर्व कथन सर्वथा ठीक है ।
शङ्काकार-
ननु चैवं सति नियमादिह पर्याया भवन्ति यावन्तः । सर्वे गुणपर्यायवाच्या न द्रव्यपर्ययाः केचित् ॥ १३२ ॥ अर्थ-यदि गुण समुदाय ही द्रव्य है तो जितनीं भी द्रव्यमें पर्यायें होगी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org