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पञ्चाव्यापी ।
[ प्रथम
स्थूल पर्यायोंमें यद्यपि सूक्ष्म पर्यायें गर्भित हो जाती हैं तथापि लक्षण भेदसे वे भिन्न २ हैं, उसी प्रकार व्यतिरेक और क्रममें भी लक्षण भेदसे भेद है सोई आगे कहा जाता हैव्यतिरेकका स्वरूप -----
तत्र व्यतिरेकः स्यात् परस्पराभावलक्षणेन यथा । अंशविभागः पृथगिति सदृशांशानां सतामेव ॥ १७२ ॥ तस्माव्यतिरेकित्वं तस्य स्यात् स्थूलपर्ययः स्थूलः । सोऽयं भवति न सोयं यस्मादेतावतैव संसिद्धिः ।। १७३ ।। अर्थ–समान अंशोंमें परिणमन होनेवाले पदार्थोंका जो परस्पर में अभावको लिये हुए भिन्न २ अंशोंका विभाग किया जाता है, उसीका नाम व्यतिरेक है । जो एक समयवर्ती पर्याय है वह दूसरे समयवर्ती नहीं है । बस इसीसे व्यतिरेककी भले प्रकार सिद्धि हो जाती है । भावार्थ - एक समयवर्ती पर्यायका द्वितीय समयवर्ती पर्यायमें अभाव लाना, इसीका नाम व्यतिरेक है । यद्यपि स्थूल पर्यायोंका समान रूपसे परिणमन होता है, तथापि एक समयवर्ती परिणमन ( आकार ) दूसरे समयवर्ती परिणमनसे भिन्न है । दूसरे समयवर्ती परिणमन पहले समयवर्ती परिणमनसे भिन्न है । इसी प्रकार भिन्न २ समयों में होनेवाले भिन्न २ आकारों में परस्पर अभाव घटित करना इसीका नाम व्यतिरेक है ।
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क्रमका स्वरूप
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विष्कंभःक्रम इति वा क्रमः प्रवाहस्य कारणं तस्य ।
न विवक्षितमिह किञ्चित्तत्र तथात्वं किमन्यथात्वं वा || १७४ || क्रमवर्तित्वं नाम व्यतिरेकपुरस्सरं विशिष्टं च ।
स भवति भवति न सोऽयं भवति तथाथ च तथा न भवतीति १७५ अर्थ- जो विस्तार युक्त हो वह क्रम कहलाता है, क्रम प्रवाहका कारण है, कममें यह नहीं विवक्षित है कि यह वह है अथवा अन्य है । क्रमवतपना व्यतिरेक के पहले होता है और नियमसे व्यतिरेक सहित होता है । एक पर्याय के पीछे दूसरी, दूसरीके पीछे तीसरी, तीसरीके पीछे चौथी, इस प्रकार बराबर के प्रवाहको क्रम कहते हैं और इस प्रकार परस्पर में आनेवाले अभावको व्यतिरेक कहते हैं 1
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यह वह नहीं है
भावार्थ - एकके पीछे दूसरी, तीसरी, चौथी इस प्रकार बराबर होनेवाले प्रवाहको क्रम कहते हैं। क्रममें यह बात नहीं विवक्षित है कि "यह वह नहीं है" और " वह नहीं है " यह विवक्षा व्यतिरेकमें है । इसीलिये क्रम व्यतिरेक के पहले होता है, क्रम व्यतिरेकका कारण है,
* यथा स्थूलपर्यये सूक्ष्मः " संशोधित पुस्तक में ऐसा पाठ है ।
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