________________
अध्याय ।।
सुवाधिनी टीका।
आशङ्का-- न च सर्वथा हि नित्यं किञ्चित्सत्त्वं गुणो न कश्चिदिति ।
तस्मादतिरिक्तौ द्वौ परिणतिमात्रौ व्ययोत्पादौ ॥ २०७॥ ___ अर्थ-कोई ऐसी आशंका न करै कि द्रव्यमें सत्त्व तो सर्वथा नित्य है बाकी का कोई गुण नित्य नहीं है, और उससे सर्वथा भिन्न परिणतिमात्र उत्पाद, व्यय दोनों हैं । क्योंकि
उत्तर--- सर्व विप्रतिपन्नं भवति तथा सति गुणो न परिणामः।
नापि द्रव्यं न सदिति पृथक्त्वदेशानुषत्वात् ॥ २०८ ।।
अर्थ-ऊपर कही हुई आशंकाके अनुसार माननेपर मभी विवादकोटिमें आजायगा । प्रदेश भेद माननेसे न गुणकी सिद्धि होगी न पर्यायकी सिद्धि होगी। न द्रव्यकी, और न सत् की ही सिद्धि होगी। क्योंकि भिन्न २ स्वीकार करनेसे एक भी (कुछ भी) सिद्ध नहीं होता।
दूसरा दोषअपि चैतदुषणमिह यन्नित्यं तद्धि नित्यमेव तथा ।
यदनित्यं तदनित्यं नैकस्यानेकधर्मत्वम् ॥ २०९ ॥
अर्थ---उत्पाद, व्ययको मर्वथा भिन्न पर्यायमात्र माननेसे और द्रव्यको उससे भिन्न सर्वथा नित्य माननेसे यह भी दूषण आता है कि जो नित्य है वह मदा नित्य ही रहेगा, और जो अनित्य है वह सदा अनित्य ही रहेगा क्योंकि एकके अनेक धर्म नहीं हो मक्ते।
भावार्थ-द्रव्यको अनेक धर्मात्मक माननेपर तो कथंचित् नित्य और कथंचित् अनित्यकी व्यवस्था बन जाती है और सर्वथा भिन्नतामें वस्तुको एक धर्मात्मक स्वीकार करने पर सम्पूर्ण व्यवस्था विघटित हो जाती है।
तीसरा दोषअपि चैकमिदं द्रव्यं गुणोयमेवेति पर्ययोऽयं स्यात् । इति काल्पनिको भेदो न स्याद्रव्यान्तरत्ववनियमात् ॥२१०॥
अर्थ-भिन्नतामें यह द्रव्य है, यह गुण है यह पर्याय है, ऐमा काल्पनिक भेद जो होता है वह भी उठ जायगा, क्योंकि भिन्नतामें द्रव्यान्तरकी तरह सभी भिन्न २ द्रव्य कहलावेंगे।
ननु भवतु वस्तु नित्यं गुणाश्च नित्या भवन्तु वार्धिरिव । भावाः कल्लोलादिवदुत्पन्नध्वंसिनो भवान्विति चेत् ॥ २११ ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org