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सुबोधिनी टीका ।
सारांश
अयमर्थी यदि भेदः स्यादुन्मज्जति तदा हि तत्रितयम् । अपि तत्त्रतयं निमज्जति यदा निमज्जति स मूलतो भेदः ॥ २१७ ॥ अर्थ — उपर्युक्त कथनका यही सारांश है कि यदि भेदबुद्धि रक्खी जाती है तब तो उत्पाद, व्यय, धौत्र्य तीनों ही सत् के अंशरूपसे प्रगट हो जाते हैं, और यदि मूलसे भेद बुद्धिको ही दूर कर दिया जाय, तत्र तीनोंही सन्मात्र वस्तुमें लीन हो जाते हैं 1
अध्याय । ]
भावार्थ - भेद विकल्पसापेक्ष - अशुद्ध द्रव्यार्थिक नयसे वही सत् उत्पाद, व्यय, धौन्य स्वरूप परिणमन करता है और भेद विकल्प निरपेक्ष- शुद्धद्रव्यार्थिकनयसे वही सत् केवल सन्मात्र ही प्रतीत होता है ।
शङ्काकार
ननु चोत्पादध्वंसौ द्वावप्यंशात्मको भवेतां हि ।
व्यं त्रिकालविषयं तत्कथमंशात्मकं भवेदिति चेत् ॥ २१८ ॥ अर्थ- शंकाकार कहता है कि उत्पाद और ध्वंस (व्यय) ये दोनों ही अंशात्मकअंश स्वरूप रहो, परन्तु धन्य तो सदा रहता है वह किस प्रकार अंश रूप हो सक्ता है ?
उत्तर
नैवं यतस्त्रयशाः स्वयं सदेवेति वस्तुतो न सतः । नैवार्थान्तरवदिदं प्रत्येकमनेकमिह सदिति ॥ २१९ ॥
अर्थ - ऊपर की हुई शंका ठीक नहीं है, क्योंकि ये तीनों ही अंश स्वयं सत् स्वरूप । वास्तव सत् नहीं हैं और न पदार्थान्तरकी तरह ही अंश रूप हैं । किन्तु स्वयं सत् ही प्रत्येक अंश रूप है ।
भावार्थ --- उत्पाद, व्यय, धौन्य तीनों ही सत्के उसप्रकार अंश नहीं है, जिस प्रकार कि वृक्ष फल, पुन पत्ते आदि होते हैं, किन्तु स्वयं सत् ही उत्पादादि स्वरूप है ।
उदाहरण
तत्रैतदुदाहरणं यद्युत्पादेन लक्ष्यमाणं सन् ।
उत्पादन परिणतं केवलमुत्पादमात्रमिह वस्तु ॥ २२० ॥
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अर्थ - इस विषय में यह उदाहरण है कि यदि सत् उत्पादका लक्ष्य बनाया जाता है अर्थात् वह उत्पाद रूप परिणाम धारण करता है तो वह केवल उत्पाद मात्र है ।
अथवा-
यदि वा व्ययेन नियतं केवलमिह सदिति लक्ष्यमाणं स्यात् । व्यrपरिणन च सदिति व्ययमात्रं किल कथं हि तन्न स्यात् ॥ २२१ ॥
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