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अध्याय ।।
सुबोधिनी टीका।
भावार्थ-आकारका नाम ही भाव है । वस्तुका एक आकार बदलकर दूसरे आकार रूप हो जाय, इसीका नाम भावसे भावान्तर कहलाता है । हरएक वस्तुमें प्रतिक्षण इसी प्रकार एक .
आकारसे आकारान्तर होता रहता है। किसी नवीन पदार्थकी उत्पत्ति नहीं होती है और न किसी सत् पदार्थका विनाश ही होता है।
दृष्टान्त
दृष्टान्तः परिणामी जलप्रवाहो य एव पूर्वस्मिन् ।
उत्तरकालेपि तथा जलप्रवाह स एव परिणामी ॥ १८५ ॥ अर्थ-दृष्टान्तके लिये जलका प्रवाह है। जो जलका प्रवाह पहले समयमें परिणमन करता है वही जलका प्रवाह दूसरे समयमें परिणमन करता है ।
यत्तत्र विसदृशत्वं जातेरनतिक्रमात् क्रमादेव।।
अवगाहनगुणयोगाद्देशांशानां सतामेव ॥ १८६ ॥
अर्थ-यह जो द्रव्यकी एक अवस्थासे दूसरी अवस्थामें भिन्नता (असमानता ) दीखती है वह अपने स्वरूपको नहीं छोड़कर क्रमसे होनेवाले देशांशोंके अवगाहन गुणके निमित्तसे ही दीखती है।
भावार्थ-द्रव्यके विकारको व्यञ्जनपर्याय कहते हैं । व्यञ्जन पर्याय · भी प्रति समय भिन्न २ होती रहती है । एक समयकी व्यञ्जन पर्यायसे दूसरे समयकी व्यञ्जन पर्यायमें समानता
और असमानता दोनों ही होती हैं। असमानतामें भी द्रव्यके स्वरूपकी च्युति ( नाश ) नहीं है किन्तु जो द्रव्यके देशांश ( आकार ) पहले किसी दूसरे क्षेत्रको घेरे हुए थे, वे ही देशांश अब दूसरे क्षेत्रको घेरने लगे । बस यही विभिन्नता है। और किसी प्रकारकी विभिन्नता नहीं है।
दृष्टान्तदृष्टान्तो जीवस्य लोकासंख्यातमात्रदेशाः स्युः। हानिर्वृद्धिस्तेषामवगाहनविशेषतो न तु द्रव्यात् ॥ १८७ ॥
अर्थ-दृष्टान्त इस प्रकार है । एक जीवके असंख्यात लोक प्रमाण प्रदेश होते हैं। उनकी हानि अथवा वृद्धि केवल अवगाहनकी विशेषतासे होती है द्रव्यकी अपेक्षासे नहीं होती।
भावार्थ-जीवके जितने भी ( असंख्यात ) प्रदेश हैं वे सदा उतने ही रहते हैं, न तो उनमेंसे कभी कुछ प्रदेश घटते हैं और न कभी कुछ प्रदेश बढ़ते हैं । किन्तु जिस शरीरमें जितना छोटा या बड़ा क्षेत्र मिलता है, उसीमें संकुचित अथवा विस्तृत रीतिसे समा जाते हैं । चीटीके शरीर में भी वही असंख्यात प्रदेशवाला आत्मा है और हाथीके शरीरमें भी वही असंन्यात प्रदेशवाला आत्मा है । आत्मा दोनों स्थानों में उतना ही है जितना कि वह है, केवल एक क्षेत्रसे
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