________________
अध्याय।
सुबोधिनी टीका। व्यतिरेक उसका कार्य है, इसलिये क्रम और व्यतिरेक एक नहीं हैं किन्तु इन दोनोंमें कार्य कारण भाव है।
शंकाकार---
ननु तन्न किं प्रमाणं क्रमस्य साध्ये तदन्यथात्वे हि। सोऽयं यःप्राक् स तथा यथेति यः प्राक्तु निश्चयादिति चेत्॥१७॥
अर्थ-क्रम और व्यतिरेकके सिद्ध करनेमें क्या प्रमाण है, क्योंकि पहले कहा जा चुका है कि जो पहले था सो ही यह है अथवा जैसा पहले था वैसा ही है ?
उत्तर--- xतन्न यतः प्रत्यक्षादनुभवविषयात्तथानुमानादा। __ स तथेति च नित्यस्य न तथेत्यनित्यस्य प्रतीतत्वात् ॥ १७७ ॥
अर्थ--उपर्युक्त शंका ठीक नहीं है, क्योंकि, प्रत्यक्ष प्रमाणसे, अपने अनुभवसे अथवा अनुमान प्रमाणसे वह उसी प्रकार है, इस प्रकार नित्यकी और " वह उस प्रकार नहीं है। इस • प्रकार अनित्यकी भी प्रतीति होती है।
इसीका खुलासा अर्थअयमर्थः परिणामि द्रव्यं नियमाद्यथा स्वतः सिद्धम् ।
प्रतिसमयं परिणमते पुनः पुनर्वा यथा प्रदीपशिखा ॥ १७८ ॥
अर्थ-उपर्युक्त कथनका यह अर्थ है कि द्रव्य जिस प्रकार स्वतः सिद्ध है, उसी प्रकार नियमसे परिणामी भी है। जिस प्रकार दीपककी शिखा (लौ) बार २ परिणमन करती है, उसी प्रकार प्रतिसमय द्रव्य भी परिणमन करता है।
__इदमस्ति पूर्वपूर्वभावविनाशेन नश्यतोंशस्य । __ यदि वा तदुत्तरोत्तरभावोत्पादेन जायमानस्य ॥ १७९ ।।
अर्थ-पहले पहले भावका विनाश होनेसे किसी अंशका (पर्यायका) नाश होनेसे और नवीन २ भावके उत्पन्न होनेसे किसी अंश (पर्याय) के पैदा होनेसे यह परिणमन होता है।
दृष्टान्ततदिदं यथा स जीवी देवो मनुजाद्भवन्नथाप्यन्यः । कथमन्यथात्वभावं न लभेत स गोरसोपि नयात् ।। १८० ॥
अर्थ-वह पूर्व २ भावका विनाश और उत्तरोत्तर भावका उत्पाद इस प्रकार होता है-जैसे जो जीव पहले मनु प्य पर्यायमें था, वही जीव मरकर देव पर्यायमें चला गया।
- x छपी पुस्तकमें यह श्लोक १७९ वाँ है। परन्तु संशोधित पुस्तकमें १७७ वाँ है। . इसी क्रमसे अर्थ भी ठीक २ घटित होता है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org