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पञ्चाध्यायी ।
[ प्रथम
अर्थ -- सोनेकी सत्ता माननेपर ही उसमें कुण्डलादिक भाव होते हैं और उन कुण्डला.
दिक भावोंके होनेपर उसमें उत्पादादिक घटते ही हैं ।
भावार्थ -- जिस समय सोनेको ठोंक पीटकर कुण्डलाकार कर दिया जाता है उस समय सोने में पहली पाँसे रूप पर्यायका विनाश होकर कुण्डल रूप पर्यायकी उत्पत्ति होती है, सोना दोनों ही अवस्था में है इसलिये सोनेमें उत्पादादित्रय तो बट जाते हैं परन्तु सोनेके प्रदेशों में वास्तवमें किसी प्रकारकी नवीन उत्पत्ति अथवा नाश नहीं होता है, केवल क्षेत्रसे क्षेत्रान्तर होता है । यदि सोनेको अनित्य ही मान लिया जाय तो पाँसेके नाश होनेपर कुण्डल किसका बने ? इसलिये नित्य पदार्थमें ही उत्पादादिक तीनों घटते हैं, अनित्यमें नहीं ।
अनया प्रक्रियया किल बोद्धव्यं कारणं फलं चैव । यस्मादेवास्य सतस्तद्द्वयमपि भवत्येतत् ॥ १९७॥
अर्थ - इसी ऊपर कही हुई प्रक्रिया ( रीति ) के अनुसार कारण और फल भी उसी कथंचित् नित्य पदार्थ घटते हैं। क्योंकि ये दोनों ही सत् पदार्थके ही हो सकते हैं 1 आस्तामसदुत्पादः सतो विनाशस्तदन्वयादेशात् ।
स्थूलत्वं च कृशत्वं न गुणस्य च निजप्रमाणत्वात् ॥ १९८ ॥ अर्थ —अविच्छिन्न सन्तति देखनेसे गुणोंमें असत्की उत्पत्ति और सत्का विनाश तो दूर रहो । परन्तु उनमें अपने प्रमाणसे स्थूलता और कृशता ( दुर्बलता ) भी नहीं होती ।
भावार्थ- - ऊपर दो प्रकारकी शंकायें की गई थीं । उन दोनोंका ही उत्तर दिया जा चुका समान अविभाग प्रतिच्छेद होनेपर भी ज्ञान कभी घटाकार होता है, कभी लोकाकार होता है, वहां तो केवल परिणमनमें आकार भेद है, परन्तु जहां पर ज्ञानके अविभाग प्रतिच्छेदों में न्यूनता अथवा वृद्धि होती है, वहां भी ज्ञानके अंशोंका नाश अथवा नवीन उत्पत्ति नहीं होती है, किन्तु ज्ञानावरण कर्मके निमित्तसे ज्ञान के अंशोंमें उद्भूति और अनुद्भूति ( व्यक्तता और अव्यक्तता ) होती रहती है। अधिक अंशोंके दब जानेसे वही ज्ञान दुर्बल कहा जाता है और अधिक अंशोंके प्रगट हो जानेसे वही ज्ञान सबल कहा जाता है । इसके सिवा ज्ञानमें और किसी प्रकार सबलता या निर्बलता नहीं आती है ।
उत्पादादिके कहने की प्रतिज्ञाइति पर्यायाणामिह लक्षणमुक्तं यथास्थितं चाथ । उत्पादादित्रयमपि प्रत्येकं लक्ष्यते यथाशक्ति ।। १९९ ।। अर्थ- इस प्रकार पर्यायोंका लक्षण, जैसा कुछ था कहा गया । अब उत्पाद, व्यय, atar fea २ स्वरूप यथाशक्ति कहा जाता है ।
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