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पञ्चाव्यायी।
[ प्रथम
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अर्थ-नैयायिक सिद्धान्तका यह उत्तर स्पष्ट रीतिसे होजाता है कि अग्निमें घड़ेको रखनेसे क्या बड़की मिट्टीका नाश हो जाता है ? यदि मिट्टीका नाश नहीं होता है तो घड़े के गुणोंमें नित्यता क्यों नहीं है ? अवश्य है।
__शङ्काकारननु केवलं प्रदेशाद्रव्यं देशाश्रया विशेषास्तु । गुणसंज्ञका हि तस्माद्भवति गुणेभ्यश्च द्रव्यमन्यत्र ॥ १२४ ॥
तत एव यथा सुघर्ट भङ्गोत्पादधुक्त्रयं द्रव्ये। . न तथा गुणेषु तत्स्यादपि च व्यस्तेषु वा समस्तेषु ॥ २२५ ॥
अर्थ-जो प्रदेश हैं वे ही द्रव्य कहलाते हैं । देशके आश्रयसे रहनेवाले जो विशेष हैं वही गुण कहलाते हैं इसलिये गुणों से द्रव्य भिन्न हैं, जब गुणोंसे द्रव्य भिन्न है तब उत्पाद, व्यय, धौव्य, ये तीनों द्रव्यमें जिस प्रकार सुवटित होते हैं, उस प्रकार गुणों में नहीं हो न तो किसी २ गुणमें होते हैं और न गुण समुदायमें ही होते हैं ?
भावार्थ-शंकाकारका यह अभिप्राय है कि द्रव्य रूप देश नित्य है उसकी अपेक्षा ही श्रीव्य है । और गुण रूप विशेष अनित्य हैं उनकी अपेक्षासे ही उत्पाद, व्यय हैं !
उत्तर--
यतः क्षणिकत्वापत्तेरिह लक्षणाद्गुणानां हि तदभिज्ञानविरोधात्क्षणिकत्वं बाध्यतेऽध्यक्षात् ॥ १२६ ॥
अर्थ-उपर्युक्त शंका ठीक नहीं है। क्योंकि इस लक्षणसे गुणोंमें रूणिकता आती है गणों में क्षणिकता यह वही है, इस प्रत्यभिज्ञानसे प्रत्यक्ष बाधित है। भावार्थ-प्रत्यभिज्ञानसे गुणोंमें नित्यता की ही प्रतीति होती है ।
दूसरा दोषअपि चैवमेकसमये स्यादेकः कश्चिदेव तत्र गुणः।
तन्नाशादन्यतरः स्यादिति युगपन्न मन्त्यनेकगुणाः ॥ १२७ ॥
अर्थ-गुणोंको उत्पाद, व्यय रूप विशेष माननेसे द्रव्यमें एक समयमें कोई एक गुण ठहरेगा । उस गुण के नाश होनेसे दूसरा गुण उसमें आवेगा । एक साथ द्रव्यमें अनेक गुण नहीं रह सकेंगे।
प्रत्यक्ष बाधातदसद्यतः प्रमाणदृष्टान्तादपि च बाधितः पक्षः।
स यथा सहकारफले युगपद्वर्णादिविद्यमानत्वात् ॥ १२८ ॥ अर्थ-द्रव्यमें एक समयमें एक ही गुणकी सत्ता मानना ठीक नहीं है । क्योंकि यह
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