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पञ्चाध्यायी ।
[ प्रथम
व्यतिरेक है, वह चार प्रकार है । देश व्यतिरेक, क्षेत्र व्यतिरेक, काल व्यतिरेक और भाव
व्यतिरेक ।
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देश व्यतिरेक इस प्रकार है
'स यथा चैको देशः स भवति नान्यो भवति स चाप्यन्यः । सोपि न भवति स देशो भवति स देशश्च देशव्यतिरेकः ॥ १४७॥ा अर्थ - अनन्त गुणोंके एक समयवर्ती अभिन्न पिण्डको देश कहते हैं । जो एक देश है वह दूसरा नहीं है । तथा जो दूसरा है, वह दूसरा ही है । वह पहला नहीं है। इसको देश व्यतिरेक कहते हैं ।
क्षेत्र व्यतिरेक इस प्रकार है—
अपि यो देश यावदभिव्याप्य वर्तते क्षेत्रम् ।
तत्तत्क्षेत्रं नान्यद्भवति तदन्यश्च क्षेत्रव्यतिरेकः ॥ १४८ ॥
अर्थ - जितने क्षेत्रको व्यापकर ( घेरकर ) एक देश रहता है । वह क्षेत्र वही है, दूसरा नहीं है । और जो दूसरा क्षेत्र है, वह दूसरा ही है, पहला नहीं है । इसको क्षेत्र व्यतिरेक कहते हैं ।
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काल व्यतिरेक इस प्रकार है
'अपि चैकस्मिन् समये यकाप्यवस्था भवेन्न साप्यन्या ।
भवति च सापि तदन्या द्वितीयसमयेपि कालव्यतिरेकः ॥ १४९ ॥ अर्थ - एक समय में जो अवस्था होती है, वह वही है । दूसरी नहीं हो जाती । और जो दूसरे समय में अवस्था है वह दूसरी ही है, पहली नहीं हो जाती, इसको कालव्यतिरेक कहते हैं ।
भाव व्यतिरेक इस प्रकार है
भवति गुणांशः कश्चित् स भवति नान्यो भवति स चाप्यन्यः । सोपि न भवति तदन्यो भवति तदन्योपि भावव्यतिरेकः॥ १५०॥ अर्थ — जो एक गुणांश है वह वही है, दूसरा नहीं है । और जो दूसरा गुणांश है, वह दूसराही है, पहला नहीं है । इसको भाव व्यतिरेक कहते हैं ।
इस प्रकारके व्यतिरेकके न माननेमें दोष
यदि पुनरेक न स्यात्स्यादपि चैवं पुनः पुनः सैवः ।
एकांश देशमा सर्व स्यात्तन्न वाघितत्वात्प्राक् ॥ १५१ ॥ अर्थ-यदि ऊपर कही हुई व्यतिरेककी व्यवस्था न मानी जावे और जो पहले समय में देशादिक हैं वे ही दूसरे समय में माने जावें, भिन्न २ न माने जावें तो सम्पूर्ण वस्तु एक अंश
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