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१६]
पञ्चाध्यायी ।
[ प्रथम
उन सर्वोको नियमसे गुणोंकी पर्याय ही कहना चाहिये, किसीको भी द्रव्य पर्याय नहीं
कहना चाहिये ?
उत्तर
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तन्न यतोऽस्ति विशेषः सति च गुणानां गुणत्ववत्त्वेपि । चिदचिद्यथा तथा स्यात् क्रियावती शक्तिरथ च भाववती ॥१३३॥ अर्थ - शङ्काकारका उपर्युक्त कहना ठीक नहीं है । क्योंकि गुणोंमें भी विशेषता है । यद्यपि गुणत्व धर्मकी अपेक्षासे सभी गुण, गुण कहलाते हैं तथापि उनमें कोई चेतन गुण है। कोई अचेतन गुण है । जिस प्रकार गुणों में यह विता है । उसी प्रकार उनमें कोई क्रियावती शक्ति ( गुण ) है और कोई भावदती शक्ति है ।
क्रियावती और भाववती शक्तियों का स्वरूप
तत्र क्रिया प्रदेशो देशपरिस्वलक्षणो वा स्यात् ।
भावः शक्तिविशेषस्तत्परिणानोऽयं वा निरंशांशैः ॥ १३४ ॥ अर्थ- उन दोनों शक्तियों में प्रदेश अथवा देशका परिस्पंद ( हलन चलन ) क्रिया कहलाती है और शक्ति विशेष भाव कहलाता है उसका परिगमन निर्देश- अंशों द्वारा होता है भावार्थ - प्रदेशवत्व गुणको कियावती शक्ति कहते हैं, और बाकी अनन्त गुणोंको भाववती शक्ति कहते हैं । परिणमन भी दो प्रकारका होता है एक तो ज्ञानादि गुणोंका परिमन दूसरा सम्पूर्ण द्रव्यका परिणमन । ज्ञानादि गुणों का परिगमन क्रिया रहित है । केवल गुणोंके अंशों में तरतम रूपसे न्यूनाधिकता होती रहती है परन्तु द्रव्यका जो परिणमन होता है, उसमें उसके सम्पूर्ण प्रदेशों में परिवर्तन होता है । वह परिवर्तन र क्रिय है । द्रव्यका परिवर्तन प्रदेशत्व गुणके निमित्तसे होता है । इसीलिये प्रदेशवत्त्व गुणको क्रिवादी शक्ति कहा गया है और बाकी सम्पूर्ण गुण निष्क्रिय है, इसलिये उन्हें भावदती शक्ति कहा गया है । यतरे प्रदेशभागास्ततरे द्रव्यस्य पर्याय नाम्ना । यतरे च विशेषांशास्ततरे गुणपर्यया भवन्त्येव ॥ १३५ ॥ अर्थ -- जितने भी प्रदेशांश हैं वे द्रव्य पर्याय कहे जाते हैं और जितने गुणांश हैं पर्याय कहे जाते हैं ।
भावार्थ -- प्रदेशत्व गुणके निमित्तसे जो द्रव्यके समस्त प्रदेशों में आकारान्तर होता रहता है उसे द्रव्यपर्याय अथवा व्यञ्जनपर्याय कहते हैं और बाकीके गुणोंमें जो तरतम रूपसे परिणमन होता है उसे गुणपर्याय अथवा अर्थ पर्याय कहते हैं ।
तत एव युदुक्तचरं व्युच्छेदादित्रयं गुणानां हि । अनवद्यमिदं सर्वं प्रत्यक्षादिप्रमाणसिद्धत्वात् ॥ १३६ ॥
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