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अध्याय ।
सुबोधिनी टीका !
___ अर्थ-निस प्रकार वस्तु प्रतिक्षण परिणमनशील है, उसी प्रकार गुण भी प्रतिक्षण परिणमनशील हैं इसलिये जसे वस्तुका उत्पाद और व्यय होता है उसी प्रकार गुणोंका उत्पाद और व्यय होता है।
गुणोंकी अनित्यतामें भी वही दृधान्तज्ञानं गुणो यथा स्यान्नित्यं सामान्यवत्तयाऽपि यतः ।
नष्टोत्पन्नं च तथा घटं विहायाऽथ पटं परिच्छन्दत् ॥११३॥
अर्थ-यद्यपि सामान्य दृष्टि से ज्ञान गुण नित्य है तथापि वह कभी बटको और कभी पटको जानता है इसलिये अनित्य भी है।
भावार्थ-अवस्था ( पर्याय ) की अपेक्षासे ज्ञान अनित्य है । अपनी सत्ताकी अपेक्षासे नित्य है।
गुणोंकी अनित्यता, वहीं दूसरा दृष्टान्तसन्दृष्टी रूपगुणो नित्यश्चानेपि वर्णमात्रतया । नष्टोत्पन्ने हरितात्परिणममानश्च पीतवत्त्वेन ॥११४॥
अर्थ-आममें रूप सदा रहता है इसकी अपेक्षासे यद्यपि रूप गुण नित्य है तो भी हरितम पीत अवस्थामें बदलनेसे वह नष्ट और उत्पन्न भी होता है।
शङ्काकार--- ननु नित्या हि गुणा अपि भवन्त्वनित्यास्तु पर्ययाः सर्वे । तत्किं द्रव्यवदिह किल नित्यात्मका गुणाः प्रोक्ताः ॥११॥
अर्थ-यह बात निश्चित है कि गुण नित्य होते हैं और पर्यायें सभी अनित्य होती हैं। फिर क्या कारण है कि द्रव्यके समान गुणोंको भी नित्याऽनित्यात्मक बदलाया है ?
उत्तर. सत्यं तत्र यतः स्यादिदमेव विवक्षितं यथा द्रव्ये
न गुणेभ्यः पृथगिह तत्सदिति द्रव्यं च पर्ययाश्चेति ॥११६॥
अर्थ-उपर्युक्त शङ्का यद्यपि ठीक है, तथापि उसका उत्तर इस प्रकार है कि गुणोंसे. भिन्न सत् पदार्थ कोई वस्तु नहीं है। द्रव्य, पर्याय और गुण ये तीनों ही सत्स्वरूप हैं इसलिये जिस प्रकार द्रव्यमें विवक्षावश कथंचित् नित्यता और कथंचित् अनित्यता आती है, उसी प्रकार गुणों में भी नित्यता और अनित्यता विवक्षाधीन है।
और भीअपि नित्याः प्रतिसमयं विनापि यत्नं हि परिणमन्ति गुणाः । स च परिणामोऽवस्था तेषामेव न पृथक्त्वसत्ताकः ॥११७॥
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