________________
२४ ]
पञ्चाध्यायी ।
[ प्रथम
है । गुण इस प्रकारका नहीं है और न उसके छेद ही ऐसे होते हैं किन्तु तरतम रूपसे
होते हैं ।
भावार्थ — देशके छेद तो भिन्न २ प्रदेश स्वरूप होते हैं परन्तु गुणके छेद सर्व प्रदेशोंमें व्यापक रहते हैं । वे हीनाधिक रूपसे होते हैं ।
गुणोंका छेदक्रम-
V
क्रमोपदेशश्चायं प्रवाहरूपो गुणः स्वभावेन । अर्धच्छेदेन पुनश्छेत्तव्योपि च तदर्धछेदेन ॥ ५७ ॥ एवं भूयो भूयस्तदर्धछेदैस्तदर्धछेदैश्च ।
यावच्छेतुमशक्यो यः कोपि निरंशको गुणांशः स्यात् ॥ ५८ ॥ तेन गुणांशेन पुनर्गणिताः सर्वे भवन्त्यनन्तास्ते ।
तेषामात्मा गुण इति नहि ते गुणतः पृथक्त्वसत्ताकाः ॥ ५९ ॥ अर्थ- गुणोंके अंशोंके छेद करनेमें क्रम कथनका उपदेश बतलाते हैं कि गुण स्वभावसे ही प्रवाह रूप है अर्थात् द्रव्य अनन्तगुणात्मक पिण्डके साथ बराबर चला जाता है । द्रव्य अनादि - अनंत है, गुण भी अनादि - अनन्त हैं । द्रव्यके साथ गुणका प्रवाह बराबर चला जाता है । वह गुण उसके अर्धच्छेदोंसे छिन्न भिन्न करने योग्य है अर्थात् उस गुणके आधे आधे छेद करना चाहिये, इसी प्रकार वार वारउ सके अर्थच्छेद करना चाहिये, तथा वहां तक करना चाहिये जहांतककि कोई भी गुणका अंश फिर न छेदा जा सके, और वह निरंश समझा जाय । उन छेदरूप किये हुए गुणोंके अंशोंका जोड़ अनन्त होता है । उन्हीं अंशोंका समूह गुण कहलाता है । गुणोंके अंश, गुणसे भिन्न सत्ता नहीं रखते हैं किन्तु उन अशोंका समूह ही एक सत्तात्मक गुण कहलाता है ।
पर्यायके पर्यायवाचक शब्द
अपि चांशः पर्यायो भागो हारो विधा प्रकारश्च । भेदच्छेदो भंगः शब्दायैकार्थवाचका एते ॥ ६० ॥
अर्थ — अंश, पर्याय, भाग, हार, विध, प्रकार, भेद, छेद, भंग, ये सब शब्द एक अर्थ के वाचक हैं | सबका अर्थ पर्याय है 1
गुणांश ही गुणपर्याय है
सन्ति गुणांशा इति ये गुणपर्यायास्त एवं नाम्नापि । अविरुद्धमेतदेव हि पर्यायाणामिहांशधर्मत्वात् ॥ ६१ ॥
अर्थ -- जितने भी गुणांश हैं वे ही गुणपर्याय कहलाते हैं । यह बात अविरुद्ध सिद्ध कि अंश स्वरूप ही पर्यायें होती हैं ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org