________________
३६ ]
पञ्चाध्यायी।
[ प्रथमें
-
न्तरके द्वारा “ सद्व्य लक्षणं " यह कहा जाता है। तथा सत्को उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य युक्त बतलाया जाता है । इसलिये उस लक्षणमें इस लक्षणसे बाधा आती है ?
उत्तरतन्न यतः सुविचारादेकोर्थो वाक्ययोईयोरेव ।
अन्यतरं स्यादितिचेन्न मिथोभिव्यञ्जकत्वाद्वा ॥९८॥ अर्थ-दोनों लक्षणोंमें विरोध बतलाना ठीक नहीं है क्योंकि अच्छी तरह बिचार करनेसे दोनों वाक्योंका एक ही अर्थ प्रतीत होता है। फिर भी शंकाकार कहता है कि जब दोनों लक्षणोंका एक ही अर्थ है तो फिर दोनोंके कहनेकी क्या आवश्यकता है, दोनों मेंसे कोई सा एक कह दिया जाय ? आचार्य उत्तर देते हैं कि ऐसा भी नहीं हैं कि दोनोंमेंसे एक ही कहा जाय, किन्तु दोनोंही मिलकर अभिव्यज्जक (वस्तुप्रदर्शक) हैं।
__ खुलासातदर्शनं यथा किल नित्यत्त्वस्य च गुणस्य व्याप्तिः स्यात् । गुणवद्रव्यं च स्यादित्युक्ते ध्रौव्यवत्पुनः सिद्धम् ॥१९॥
अर्थ-दोनों लक्षणोंके विषयमें खुलासा इस प्रकार है कि नित्यता और गुणकी व्याप्ति है अर्थात् गुण कहनेसे नित्यपनेका बोध होता है इसलिये " गुणवान् द्रव्य है " ऐसा कहनेसे ध्रौव्यवान् द्रव्य सिद्ध होता है ।
भावार्थ-कथंचित् नित्यको ध्रौव्य कहते हैं । गुणोंसे कथंचित् नित्यता सिद्ध करने के लिये ही द्रव्यको ध्रौव्यवान् कहा है।
विशेषअपि च गुणाः सलक्ष्यास्तेषामिह लक्षणं भवेत् ध्रौव्यम् । तस्माल्लक्ष्यं साध्यं लक्षणमिह साधनं प्रिसद्धत्वात् ॥१०॥
अर्थ-दूसरे शब्दोंमें यह कहा जाता है कि गुण लक्ष्य हैं, ध्रौव्य उनका लक्षण है इसलिये यहां पर लक्ष्यको साध्य बनाया जाता है और लक्षणको साधन बनाया जाता है ।
भावार्थ--गुणोंका ध्रौव्य लक्षण करनेसे गुणोंमें कथंचित् नित्यता भली भांति सिद्ध हो जाती है।
पर्यायकी अनित्यताके साथ व्याप्ति हैपर्यायाणामिह किल भङ्गोत्पादवयस्य वा व्याप्तिः ।
इत्युक्ते पर्ययवद्रव्यं स्मृष्टिव्ययात्मकं वा स्यात् ॥१०॥
अर्थ-पर्यायोंकी नियमसे उत्पाद और व्ययके साथ व्याप्ति है अर्थात् पर्यायके कहनेसे उत्पत्ति और विनाशका बोध होता है । इस लिये "पर्यायवाला द्रव्य है" ऐसा कहनेसे उत्पाद व्ययवाला द्रव्य सिद्ध होता है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org