________________
अध्याय । ]
सुबोधिनी टीका ।
परिणाम नहीं मानने में दोष
परिणामाभावादपि द्रव्यस्य स्यादनन्यथावृत्तिः । तस्यामिह परलोको न स्यात्कारणमथापि कार्य वा ॥ ९५ ॥ अर्थ - परिणामके न माननेसे द्रव्य सदा एकसा ही रहेगा । उस अवस्थामें परलोक कार्य, कारण आदि कोई भी नहीं ठहर सक्ता ।
भावार्थ - दृष्टान्त के लिये जीव द्रव्यको ही ले लीजिये । यदि जीव द्रव्यमें परिणमन न माना जाय, उसको सदा एक सरीखा ही माना जाय, तो पुण्य पापका कुछ भी फल नहीं हो सकता है, अथवा मोक्षके लिये सब प्रयत्न व्यर्थ हैं । इसी प्रकार अवस्थाभेदके न माननेमें. कार्य कारणभाव आदि व्यवस्था भी नहीं बन सकती है ।
परिणामी के न माननेमें दोष
परिणामिनोप्यभावत् क्षणिकं परिणाममात्रमिति वस्तु । तन्न यतोऽभिज्ञानान्नित्यस्याप्यात्मनः प्रतीतित्वात् ॥९६॥
[ ३५
अर्थ - यदि परिणामीको न माना जाय तो वस्तु क्षणिक - केवल परिणाम मात्र ठहर जायगी और यह बात बनती नहीं, क्योंकि प्रत्यभिज्ञान द्वारा आत्माकी कथञ्चित् नित्य रूपसे भी प्रतीति होती है ।
भावार्थ - विना कथंचित् नित्यता स्वीकार किये आत्मा में यह वही जीव है, ऐसा प्रत्यभिज्ञान नहीं हो सकता । इसलिये दोनों श्लोंकोका फलितार्थ यह निकला कि वस्तु अपनी वस्तुताको कभी नहीं छोड़ती इसलिये तो वह नित्य है और वह सदा नई २ अवस्थाओंको बदलती रहती है इसलिये अनित्य भी हैं । वह न तो सर्वथा नित्य ही है और न सर्वथा अनित्य ही है जैसा कि सांख्य बौद्ध मानते हैं ।
शङ्काकार
गुणपर्ययवद्रव्यं लक्षणमेकं यदुक्तमिह पूर्वम् । वाक्यान्तरोपदेशादधुना तद्वाध्यते त्विति चेत् ॥ ९७॥
अर्थ - पहले द्रव्यका लक्षण " गुणपर्ययवद्द्रव्यं " यह कहा गया है और अब वाक्या
X
" दर्शनस्मरणकारणकं सङ्कलनात्मकं ज्ञानं प्रत्यभिज्ञानम् " अर्थात् जिस पदार्थको पहिले कभी देखा जाय, फिर भी कभी उसीको अथवा उसके सम या विषमको देखा जाय तो वहां वर्तमान में प्रत्यक्ष और पहिलेका स्मरण, दोनों एक साथ होनेसे यह वही है अथवा उसके समान है, आदि ज्ञान होता है । इसीको प्रत्यभिज्ञान कहते हैं । विना कथञ्चित् नित्यता स्वीकार किये ऐसा ज्ञान नहीं हो सकता ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org