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पञ्चाध्यायी ।
[ प्रथम
वस्तु सर्वथा अनित्य ठहर जायगी, तथा फिर नवीन वस्तुका उत्पाद होगा, और जो है उसका नाश हो जायगा । परंतु यह व्यवस्था * प्रमाण वाधित है इसलिये वस्तुको परिणामी मानना चाहिये । फिर किसी परिणामसे वस्तु उत्पन्न होगी, किसीसे नष्ट भी होगी और किसी से स्थिर भी रहेगी । इसी बात को आगे स्पष्ट करते हैं
द्रव्यं ततः कथञ्चित्केनचिदुत्पद्यते हि भावेन । व्येति तदन्येन पुननैतद्वितयं हि वस्तुतया ॥९१॥
अर्थ — उपर्युक्त कथनसे द्रव्य परिणामी सिद्ध हो चुका इस लिये वह किसी अवस्था से कथंचित् उत्पन्न भी होता है, किसी दूसरी अवस्थासे कथंचित् नष्ट भी होता है । वस्तुस्थि तिसे उत्पत्ति और नाश, दोनों ही वस्तु में नहीं होते ।
भावार्थ - किसी परिणामसे वस्तुमें धौन्य ( कथंचित् नित्यता ) भी रहता है । उत्पादादि त्रयके उदाहरण-
इह घटरूपेण यथा प्रादुर्भवतीति पिण्डरूपेण ।
व्येति तथा युगपत्स्यादेतद्वितयं न मृत्तिकात्वेन ||१२|| अर्थ- -वस्तु घटरूपसे उत्पन्न होती है, पिण्ड रूपसे नष्ट होती है, मृत्तिका रूपसे स्थिर है। ये तीनों ही अवस्थायें एक ही कालमें होती हैं परन्तु एक रूप नहीं है ।
शङ्काकार ।
ननु ते विकल्पमात्रमिह यदकिञ्चित्करं तदेवेति ।
एतावतापि न गुणो हानिर्वा तद्विना यतस्त्विति चेत् ॥९३॥ अर्थ -- शङ्काकार कहता है कि यह सब तुम्हारी कल्पना मात्र है और वह व्यर्थ है । उत्पादादि त्रयके मानने से न तो कोई गुण ही है और इसके न माननेसे कोई हानि भी नहीं दीखती !
उत्तर
तन्न यतो हि गुणः स्यादुत्पादादित्रयात्मके द्रव्ये । तन्निन्हवे च न गुणः सर्वद्रव्यादिशून्यदोषत्वात् ॥९४॥
अर्थ — शङ्काकारकी उपर्युक्त शंका ठीक नहीं है क्योंकि उत्पादादि त्रय स्वरूप वस्तुको माननेसे ही लाभ है उसके न माननेमें कोई लाभ नहीं है, प्रत्युत द्रव्य, परलोक कार्य कारण आदि पदार्थोंकी शून्यताका प्रसंग आनेसे हानि है ।
* ऐसा माननेसे जो दोष आते हैं, उनका कथन पहले किया जा चुका है ।
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