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पश्चाध्यायी ।
विशेष लक्षण कहने की प्रतिज्ञा-
अथ चैतदेव लक्षणमेकं वाक्यान्तरप्रवेशेन । निष्प्रतिद्यप्रतिपत्त्यै विशेषतो लक्षयन्ति बुधाः ॥ ८५ ॥
अर्थ - " गुण पर्ययवद्द्रव्यम् " इसी एक लक्षणको निर्वाध प्रतीतिके लिये वाक्यान्तर ( दूसरी रीति से ) द्वारा विशेष रीति से भी बुद्धिमान कहते हैं ।
भावार्थ -- अत्र द्रव्यका दूसरा लक्षण कहते हैं परन्तु वह दूसरा लक्षण उपर्युक्त (गुणपर्ययद्रव्य) लक्षण से भिन्न नहीं है किन्तु उसीका विशद है
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द्रव्यका लक्षण
उत्पादस्थितिभंगैर्युक्तं सद्द्रव्यलक्षणं हि यथा । एतैरेव समस्तैः पृक्तं सिद्धेत्समं न तु व्यस्तैः ॥ ८६ ॥
अर्थ - पहले जो द्रव्यका लक्षण 'सत्' कहा गया है वह सत् उत्पाद, स्थिति, भंग, इन तीनोंसे सहित ही द्रव्यका लक्षण हैं । इतना विशेष है कि इन तीनोंका साहित्य भिन्न में नहीं होता है, किन्तु एक ही कालमें होता है ।
भावार्थ - एक काल में उत्पाद, व्यय, श्रव्य, तीनों अवस्थाओंको लिये हुए सत् ही द्रव्यका लक्षण है ।
उसीका स्पष्टार्थ
* अयमर्थः प्रकृतार्थो धौव्योत्पादव्ययास्त्रयश्चांशाः ।
नाम्ना सदिति गुणः स्यादेकोऽनेके त एकशः प्रोक्ताः ॥ ८७ ॥
[ प्रथम
अर्थ - इस प्रकरणका यह अर्थ है कि उत्पाद, व्यय और धौव्य, ये तीनों ही
अंश, एक सत् गुणके हैं इसलिये इन तीनोंको ही समुदाय रूपसे सन्मात्र कह देते हैं और क्रमसे वे तीनों ही जुदे २ अनेक हैं
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भावार्थ- द्रव्यमें एक अस्तित्व नामक गुण है, उसीको सत्ता भी कहते हैं । वह सत् गुण ही उत्पाद, व्यय, प्रौन्यात्मक है इसलिये प्रत्येककी अपेक्षासे तीनों जुड़े २ हैं, परन्तु समुदायकी अपेक्षासे केवल सतगुण स्वरूप हैं ।
सत् गुण भी है और द्रव्य भी है ।
लक्ष्यस्य लक्षणस्य च भेदविवक्षाश्रयात्सदेव गुणः । द्रव्यार्थादेशादिह तदेव सदिति स्वयं द्रव्यम् ॥ ८८ ॥
* इस इलोकद्वारा तत्त्वार्थ सूत्र के " सद्द्रव्यलक्षणं सत् " इन्हीं दो सूत्रोंका आशय प्रगट किया गया है ।
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और " उत्पादव्ययश्राव्ययुक्तं
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