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पञ्चाध्यायी।
[प्रथम नित्यता और अनित्यताका दृष्टान्त. स यथा परिणामात्मा शुक्लादित्वादवस्थितश्च पटः।
अनवस्थितस्तदंशैस्तस्तमरूपैर्गुणस्य शुक्लस्य ॥६६॥ - अर्थ-जिस प्रकार शुक्लादि अनन्त गुणोंका समूह वस्त्र अपनी अवस्थाओंको प्रतिक्षण बदलता रहता है । अवस्थाओंके बदलने पर भी शुक्लादिगुणोंका नाश कभी नहीं होता है इसलिये तो वह वस्त्र नित्य है । साथ ही शुक्लादिगुणोंके तरतम रूप अंशोंकी अपेक्षासे अनित्य भी है। क्योंकि एक अंश (पर्याय ) दूसरे अंशसे भिन्न है। भावार्थ --वस्त्र, पर्यायदृष्टि से अनित्य है, और द्रव्य दृष्टिसे नित्य है ।
दूसरा जीवका दृष्टान्त---- अपि चात्मा परिणामी ज्ञानगुणत्वादवास्थितोपि यथा। - अनवस्थितस्तदंशैस्तरतमरूपैर्गुणस्य बोधस्य ॥ ६७ ॥
अर्थ-आत्मामें ज्ञान गुण सदा रहता है । यदि ज्ञान गुणका आत्मामें अभाव हो जाय तो उस समय आत्मत्व ही नष्ट हो जाय । इसलिये उस गुणकी अपेक्षासे तो आत्मा नित्य है, परन्तु उस गुणके निमित्तसे आत्माका परिणमन प्रतिक्षण होता रहता है, कभी ज्ञानगुणके अधिक अंश व्यक्त हो जाते हैं और कभी कम अंश प्रकट हो जाते हैं, उस ज्ञानमें सदा हीनाधिकता (संसारावस्थामें ) होती रहती है, इस हीनाधिकताके कारण आत्मा कथंचित् अनित्य भी हैं ।*
आशंकायदि पुनरेवं न भवति भवति निरंशं गुणांशवद्रव्यम्। यदि वा कीलकवदिदं भवति नै परिणामिवा भवेत् क्षणिकम् ।
अथचेदिदभाकूतं भवन्त्वनन्ता निरंशका अंशाः। .... तेषामपि परिणामो भवतु समांशो न तरतमांशः स्यात् ॥६९॥
. अर्थ-यदि ऊपर कही हुई द्रव्य,, गुण, पर्यायकी व्यवस्था न मानी जाय, और गुणांशकी तरह निरंश द्रव्य माना जाय, अथवा उस निरंश द्रव्यको परिणामी न मानकर कूटस्थ ( लोहेका पीटनेका एक मोटा कीला होता है जो कि लुहारोंके यहां गढ़ा रहता है ) की तरह नित्य माना जाय, अथवा उस द्रव्यको सर्वथा क्षणिक ही माना जाय, अथवा उस द्रव्यके अनन्त निरंश अंश मानकर उन अंशोंका समान रूपसे परिणमन माना जाय, तरतम रूपसे न माना जाय तब क्या दोष होगा ?
* पदार्थोकी अवस्थाभेदके निमित्तसे मुक्त जीवोंके ज्ञानमें भी परिणमन होता है इसलिये मुक्तात्माओंमें भी कथंचित् अनि यता सिद्ध होती है ।
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