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पञ्चाध्यायी ।
द्रव्य में अनन्तगुण
देशस्यैका शक्तिर्या काचित् सा न शक्तिरन्या स्यात् । क्रमतो वितर्यमाणा भवन्त्यनन्ताश्च शक्तयो व्यक्ताः ॥४९॥ अर्थ — देशकी कोई भी एक शक्ति, दूसरी शक्तिरूप नहीं होती, इसी प्रकार क्रमसे प्रत्येक शक्तिके विषयमें विचार करनेपर भिन्न २ अनन्त शक्तियां स्पष्ट प्रतीत होती हैं । भावार्थ- द्रव्यमें अनंत शक्तियां हैं, वे सभी एक दूसरेसे भिन्न हैं । एक शक्ति दूसरी शक्ति रूप कभी नहीं होती ।
शक्तियों भिन्नता हेतु --
स्पर्शो रसश्च गन्धो वर्णो युगपद्यथा रसालफले ।
प्रतिनियतेन्द्रियगोचरचारित्वात्ते भवन्त्यनेकेपि ॥ ५० ॥ अर्थ - जिस प्रकार आमके फलमें स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण, चारों ही एक साथ पाये जाते हैं, वे चारों ही गुण भिन्न २ नियत इन्द्रियों द्वारा जाने जाते हैं इसलिये वे भिन्न हैं । भावार्थ - - आमके फलमें जो स्पर्श है उसका ज्ञान स्पर्शन इन्द्रियसे होता है, रसका ज्ञान रसनेन्द्रिय से होता है, गन्धका ज्ञान नासिकासे होता है, रूपका ज्ञान चक्षुसे होता है । भिन्न २ इन्द्रियोंके विषय होनेसे वे चारों ही गुण भिन्न हैं । इसी प्रकार सभी गुणोंके कार्य भी भिन्न २ हैं, इसलिये सभी गुण भिन्न २ हैं ।
गुणोंकी भिन्नता में दृष्टान्ततदुदाहरणं चैतज्जीवे यद्दर्शनं गुणश्चैकः ।
तन्न ज्ञानं न सुखं चारित्रं वा न कश्चिदितरश्च ॥ ५१ ॥
[ प्रथम
अर्थ- सभी गुण पृथक २ हैं, इस विषय में यह उदाहरण है-जैसे जीव द्रव्यमें जो एक दर्शन नामा गुण है, वह ज्ञान नहीं होसक्ता, न सुख होसक्ता, न चारित्र होमक्ता अथवा और भी किसी गुण स्वरूप नहीं हो सक्ता, दर्शनगुण सदा दर्शनरूप ही रहेगा ।
एवं यः कोपि गुणः सोपि च न स्यात्तदन्यरूपो वा ।
स्वयमुच्छन्ति तदिमा मिथो विभिन्नाश्च शक्तयोऽनन्ताः ॥५२॥ अर्थ -- इसी प्रकार जो कोई भी गुण है वह दूसरे गुण रूप नहीं हो सक्ता इसलिये द्रव्यकी अनन्त शक्तियां परस्पर भिन्नताको लिये हुए भिन्न २ कार्यों द्वारा स्वयं उदित होती रहती हैं ।
गुणों में अंशविभाग -
तासामन्यतरस्या भवन्त्यनन्ता निरंशका अंशाः । तरतमभागविशेषैरंशच्छेदैः प्रतीयमानत्वात् ॥ ५३ ॥
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