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पञ्चाध्यायी ।
| प्रथम
होता है, यह नियम वस्तुओंकी अव्यवस्था में बाधक हो जाता है । इस लिये असत पदार्थोंकी उत्पत्ति न मानकर वस्तुको सत्रूप मानना ही ठीक हैं ।
परसे सिद्ध मानने में दोष --
परतः सिद्धत्वे स्यादनवस्थालक्षणो महान दोषः ।
सोपि परः परतः स्यादन्यस्मादिति यतश्च सोपि परः ॥ ११ ॥ अर्थ- वस्तुको परसे सिद्ध मानने पर अनवस्था नामक दोष आता है । यह दोष बड़ा दोष है । वह इस प्रकार आता है कि वस्तु जब परसे सिद्ध होगी तो वह पर भी किसी दूसरे पर पदार्थसे सिद्ध होगा । क्योंकि पर- सिद्ध माननेवालों का यह सिद्धान्त है कि हर एक पदार्थ परसे ही उत्पन्न होता है ।
भावार्थ - अप्रमाणरूप अनन्त पदार्थोंकी उत्तरोत्तर कलना करते चले जाना, इसीका नाम अनवस्था *दोष है । यह दोष पदार्थ सिद्धि में सर्वथा बाधक है । पदार्थों को पर सिद्ध मानने पर यह महा दोष उपस्थित हो जाता है। क्योंकि उससे वह, फिर उससे वह, इस प्रकार कितनी ही लम्बी कल्पना क्यों न की जाय, परन्तु कहीं पर भी जाकर विश्राम नहीं आता। जहां रुकेंगे वहीं पर यह प्रश्न खड़ा होगा कि यह कहांसे हुआ । इसलिये वस्तुको पर सिद्ध न मानकर स्वतः सिद्ध मानना ही श्रेयस्कर है ।
युतसिद्ध मानने में दोष
युतसिद्धत्वेप्येवं गुणगुणिनोः स्यात्पृथक् प्रदेशत्वम् । उभयोरात्मसमवालक्षणभेदः कथं तयो भवति ||१२||
अर्थ - युतसिद्ध माननेसे गुण और गुणी ( जिसमें गुण पाया जाय ) दोनों ही के भिन्न २ प्रदेश ठहरेंगे | उस अवस्था में दोनों ही समान होंगें। फिर अमुक गुण है और अमुक गुणी है ऐसा गुण, गुणीका भिन्न २ लक्षण नहीं बन सकेगा ।
भावार्थ-अनन्तगुणों का अखण्ड पिण्ड स्वरूप यदि वस्तु मानी जावे तब तो गुण, गुणीके भिन्न प्रदेश नहीं होते हैं, और अभिन्नता में ही विवक्षा वश गुण, गुणीमें लक्षणभेद हो जाता है । परन्तु जब वस्तुके भिन्न प्रदेश माने जावें और गुणोंके भिन्न माने जावें तत्र दोनों ही स्वतंत्र होंगे, और स्वतन्त्रतासे अमुक गुण है और अमुक गुणी है ऐसा लक्षणभेद नहीं कर सकते । समान अधिकर में दोनोंही वस्तु होंगे अथवा दोनों ही गुण होंगे। इसलिये युतसिद्ध मानना ठीक नहीं है।
सत् का नाश माननेमें दोप
अथवा सतो विनाशः स्यादिति पक्षोपि वाधितो भवति । नित्यं यतः कथञ्चिद्रव्यं सुज्ञैः प्रतीयतेऽध्यक्षात् ॥ १३ ॥ * अप्रामाणिकाऽनन्तपदार्थकल्पनया - अविश्रान्तिरनवस्था ।
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