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अध्याय।।
. सुबोधिनी टीका।
ग्रहण हो जाता है । इसीलिये वस्तुको सत स्वरूप भी कह दिया है । सत और गुण समुदाय रूप वस्तु, दोनों अभिन्न हैं । इस लिये सत् रूप ही वस्तु है ।
__ यहांपर लक्ष्य लक्षणकी भेद विवक्षा रखकर ही वस्तुका सत्, लक्षण बतलाया है । अभेद विवक्षा में तो वस्तुको सत् स्वरूप ही बतलाया गया है।
नैयायिक आदि कतिपय दर्शनवाले वस्तुको परसे सिद्ध मानते हैं। ईश्वरादिको उसका रचयिता बतलाते है, परन्तु यह मानना सर्वथा मिथ्या है। बस्तु अपने आप ही सिद्ध है। इसका कोई बनानेवाला नहीं है । इसी लिये न इसकी आदि है और न इसका अन्त है । प्रत्येक वस्तुका परिणमन अवश्य होता है उस परिणमनमें वस्तु अपने आप ही कारण है और अनन्त गुणोंका पिण्डरूप वस्तु वचन वर्गणाके सर्वथा अगोचर है ।
ऐसा न माननेमें दोष-- ८ इत्यं नोचेदसतः प्रादुर्भूति निरङ्कशा भवति। .
परतः प्रादुर्भावा युतसिद्धत्वं सतो विनाशो वा ॥९॥ ____ अर्थ-यदि ऊपर कही हुई रीतिसे वस्तुका स्वरूप न माना जावे तो अनेक दोष आते हैं । असत् पदार्थ भी होने लगेगा । जब वस्तुको सत् स्वरूप और स्वतःसिद्ध माना जाता है तब तो असत्की उत्पत्ति बन नहीं सकती है। परन्तु ऐसा न मानने पर यह दोष विना किसी अंकुशके प्रवल मासे उपस्थित हो जायगा । इसी प्रकार वस्तुकी परसे उत्पत्ति होने लगेगी। वस्तुमें युतसिद्धता (अखण्डताका अभाव) भी होगी । और सत् पदार्थका विनाश भी होने लगेगा। इस तरह ऊपरकी चारों बातोंके न माननेसे ये चार दोष आते हैं।
___ असत्यदार्थकी उत्पत्तिमेंV असतः प्रादुर्भावे द्रव्याणामिह भवेदनन्तत्त्वम् । ___को वारयितुं शक्तः कुम्भोत्पत्तिं मृदाद्यभावेपि ॥ १० ॥
अर्थ-यदि उन दोषोंको स्वीकार किया जाय तो और कौन २ दोष आते हैं, वही बतलाया जाता है। यदि असत्की उत्पत्ति मान ली जाय, अर्थात् जो वस्तु पहले किसी रूपमें भी नहीं है, और न उसके परमाणुओंकी सत्ता ही है, ऐसी वस्तुकी उत्पत्ति माननेसे वस्तुओंकी कोई इयत्ता ( मर्यादा ) नहीं रह सक्ती है । जब विना अपनी सत्ताके ही नवीन रूपसे उत्पत्ति होने लगेगी तो संसारमें अनन्तों इत्य होते चले जायगे। ऐसी अवस्थामें विना मिट्टीके ही घड़ा बनने लगेगा, इसको कौन रोक सकेगा।
भावार्थ-असत्की उत्पत्ति माननेसे वस्तुओमें कार्य-कारण भाव नहीं रहेगा। कार्यकारण भावके उठ जानसे कोई वस्तु कहींसे क्यों न उत्पन्न होनाय उसमें कोई बाधक नहीं हो सक्ता है । कार्यकारण माननेपर यह दोष नहीं आता है। अपने कारणसे ही अपना कार्य
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