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पञ्चाध्यायी।
[प्रथम
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जब दोनों जगह एक ही गोत्त्व धर्म है तब वह अखण्ड होना चाहिये, और अखण्ड होनेसे कलकत्ता और बम्बईके बीच में जितने भी पदार्थ हैं उन सबमें भी गोत्वधर्म रह जायगा । गोत्व धर्मके रहनेसे वे सभी पदार्थ गौ, कहलांयगे। इन बातोंके सिवाय सत्ताको स्वतन्त्र माननेमें
और भी अनेक दोष आते हैं । इस लिये सत्ता स्वतन्त्र पदार्थ नहीं हैं किन्तु वस्तुसे अभिन्न एक अस्तित्व नामक गुण है । जितने संसारमें पदार्थ हैं उन सबमें भिन्न २ सता हैं, एक नहीं हैं। जब वस्तु परिणमनशील है तब उसके सत्ता गुणमें भी परिवर्तन होता है, इसलिये वह सत्ता कथंचित् अनित्य भी है, सर्वथा नित्य नहीं है । वस्तुके परिणमनकी अपेक्षासे ही उस सत्तामें प्रतिपक्षता आती है । प्रर्यायकी अपेक्षासे वह सत्ता अनेक रूप है। द्रव्यकी अपेक्षासे वह एक रूप भी हैं। इसी प्रकार सत्ताका प्रतिपक्ष पदार्थान्तर रूप परिणमनकी अपेक्षासे अभाव भी पड़ता है । और भी अनेक रीतिसे प्रतिपक्षता आती है जिसको ग्रन्थकार स्वयं आगे प्रगट करेंगे।
शङ्काकार
अत्राहैवं कश्चित् सत्ता या सा निरङ्कशा भवतु । परपक्षे निरपेक्षा स्वात्मनि पक्षेऽवलम्बिनी यस्मात् ॥१६॥
अर्थ-यहां पर कोई कहता है कि जो सत्ता है वह स्वतन्त्र ही है । क्योंकि वह अपने स्वरूपमें ही स्थित है । परपक्षसे सर्वथा निरपेक्ष है। अर्थात् सत्ताका कोई प्रतिपक्ष नहीं है।
उत्तर-- तन्न यतो हि विपक्षः कश्चित्सत्त्वस्य वा सपक्षोपि। द्वावपि नयपक्षौ तौ मिथो विपक्षौ विवक्षितापेक्षात् ॥ १७॥ .
अर्थ-शङ्काकारका उपर्युक्त कहना ठीक नहीं है। क्योंकि सत्ताका कोई सपक्ष और कोई विपक्ष अवश्य है । दोनों ही नय पक्ष हैं, और वे दोनों ही नय पक्ष विवक्षा वश परस्परमें विपक्षपनेको लिये हुए हैं।
भावार्थ-जिस समय द्रव्यके कहनेकी इच्छा होती है उस समय पर्यायको गौण दृष्टिसे देखा जाता है, और जिस समय पर्यायको कहनेकी इच्छा होती है उस समय द्रव्यको गौण दृष्टि से देखा जाता है । द्रव्य और पर्यायमें परस्पर विपक्षता होनेसे सत्ताका सपक्ष और विपक्ष भी सिद्ध हो जाता है।
१ जिनका कुछ कथन दूसरे अध्यायमें किया गया है । १ नैयायिक दर्शन
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