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अध्याय ।
सुबोधिनी टीका।
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फिर शङ्काकारअत्राप्याह कुदृष्टि यदि नय पक्षौ विवक्षितौ भवतः । का नः क्षति भवेतामन्यतरेणेह सत्त्वसंसिद्धिः ॥ १८ ॥
अर्थ-यहां पर फिर मिथ्या दृष्टि कहता है कि यदि नय पक्ष विवक्षित होते हैं, तो होओ, हमारी कोई हानि नहीं है । सत्ताकी स्वतन्त्र सिद्धि एक नयसे ही हो जायगी।
भावार्थ-शङ्काकार कहता है कि यदि द्रव्यार्थिक नय अथवा पर्यायार्थिक नय इन दोनों में से किसी भी नयसे जैन सिद्धान्त सत्ताको स्वीकार करता है तो उसी नयसे हम सत्ताको स्वतंत्र मानेंगे जिस नयसे भी सत्ता मानी जायगी उसी नयसे सत्ताकी स्वतन्त्रता बनी रहेगी। दूसरी नयको सत्ताका विपक्ष माननेकी क्या आवश्यकता है ?
शङ्काकारका आशय यही है कि किसी नय दृष्टि से भी सत्ता क्यों न स्वीकार की नाय, उस दृष्टि से वह स्वतन्त्र है, विपक्ष नय दृष्टिसे सत्ताका प्रतिपक्ष क्यों माना जाता है ?
उत्तरतन्न यतो द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकनयात्मकं वस्तु ।
अन्यतरस्य विलोपे शेषस्यापीह लोप इति दोषः ॥ १९॥
अर्थ-शङ्काकारका उपर्युक्त कहना ठीक नहीं हैं । क्योंकि वस्तु द्रयार्थिक और पर्यायार्थिक नय स्वरूप है। इन दोनों नयोंमेंसे किसी एक नयका लोप करने पर बाकीकी दूसरी नयका भी लोप हो जायगा । यह दोष उपस्थित होता है ।
भावार्थ-"सामान्य विशेषात्मा तदर्थो विषयः” ऐसा परीक्षामुखका सूत्र है । वस्तु उभय धर्मात्मक ही प्रमाणका विषय है । यदि सामान्य विशेषकी अपेक्षा न करै तो सामान्य भी नहीं रह सक्ता, क्योंकि विना विशेषके सामान्य अपने स्वरूपका लाभ ही नहीं कर सत्ता । इसी प्रकार विशेष भी यदि सामान्यकी अपेक्षा न रखकर स्वतन्त्र रहना चाहे तो वह भी नहीं रह सक्ता। यहां पर विशेष कथन पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षासे है, और सामान्य कथन द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षासे है । यदि शङ्काकारके कथनानुसार जिस नयसे सत्ता मानते हैं उसी नयसे सत्ताको स्वतन्त्र मानने लगें और प्रतिपक्षी नयकी अपेक्षासे असत्ताको स्वीकार न करें तो वस्तु एक नय रूप होगी। निरपेक्ष एक नयकी स्वीकारतामें वह नय भी नहीं रह सकेगी। क्योंकि वस्तु उभय नय रूप है । इसलिये एक नय दूसरे नयकी अवश्य अपेक्षा रखती है । इसी पारस्परिक अपेक्षामें सत्ताका प्रतिपक्ष असत्ता पड़ती है।
परस्परकी प्रतिपक्षताप्रतिपक्षमसत्ता स्यात्सत्तायास्तद्यथा तथा चान्यत् । नाना रूपत्वं किल प्रतिपक्षं चैकरूपतायास्तु ॥ २० ॥
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