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न्यायरत्नसार प्रथम अध्याय
अर्थ-प्रमणता ज्ञान में पर से ही आती है, तथा उस प्रमाणता का निश्चय अभ्यास दशा में स्वतः और अनभ्यास दशा में पर से होता है।
व्याख्या -प्रमाण-ज्ञान के द्वारा जो वस्तु जैसी होती है, वह वैसी ही यदि जानी जाती है तो वह ज्ञान सच्चा–सम्यक् कहा गया है। अब इस पर प्रश्न यह होता है कि ज्ञान में यह सच्चाई अपने आप आती है या उसके लिये अन्य कारणों की आवश्यकता होती है? इसी का उत्तर इस सत्र दिया गया है । इस में यह समझाया गया है कि ज्ञान एक सामान्य गुण है और सम्यग्झान एवं मिथ्याज्ञान ये दो उसकी विशेष अवस्थाएँ हैं। इन दोनों विशेष अवस्थाओं के लिये विशेष कारणों की आवश्यकता पड़ती है । हम देखते हैं कि सामान्य धागों से ही बस्न तैयार होता है, परन्तु जव लाल वस्त्र बनाना होता है, तब सामान्य डोरों से वह नहीं बनाया जाता है, उसके लिए तो लाल डोरों की ही आवश्यकता होती है। इस से निकर्ष यही निकलता है कि अच्छे-बुरे कार्यों के लिये सामान्य सामग्री से अधिक विशेष सामग्री की आवश्यकता होती है। जिस सामान्य सामग्री से ज्ञान की उत्पत्ति होती है, उसी सामग्री से उसमें प्रमाणता की उत्पत्ति नहीं होती है, उसके लिए तो विशेष कारणों की इन्द्रियादिकों की निर्मलतारूप गुणों की आवश्यकता पड़ती है। इन्हीं विशेष कारणों की अपेक्षा से उत्पन्न होने के कारण ज्ञान में प्रमाणता की उत्पत्ति परतः कही गई है । तथा जब यह जानने की इच्छा होती है कि हमें जो ज्ञान उत्पन्न हुआ है, वह सच्चा है, तो इसके लिये प्रकट किया गया है कि अभ्यस्त विषय में परिचित ग्राम जलाशय आदि में जो ज्ञान उन उन
जानने का होता है, वह इतना पक्का होता है कि उसकी सच्चाई जानने के लिये हमें अन्य कारणों की आवश्यकता ही नहीं पड़ती है। जैसे--जिस तालाब आदि में जो प्रतिदिन स्नान आदि कार्य किया करते हैं, वहाँ के पानी के सद्भाव में उन्हें तनिक भी सन्देह नहीं होता है, अतः वहाँ जल-ज्ञान होते ही ग्रह हमारा जल-ज्ञान निर्दोष है, यह स्वतः ही निश्चय हो जाता है। इसी का नाम स्वतः प्रामाण्य की ज्ञप्ति है और जो अपरिचित स्थान आदि हैं वहाँ ज्ञान में प्रमाणता जानने के लिये अन्य कारणों की अपेक्षा रहती है। जसे-अपरिचित स्थान में दूर से पानी दिखने पर हमें यह सन्देह उत्पन्न हो सकता है कि जो जल-ज्ञान हमें हुआ है वह सत्य है या असत्य है ? क्योंकि कहीं यह मृगमरीचिका ·-मृग-तृष्णा तो नहीं है और उसी में यह जल-ज्ञान तो हमें नहीं हो रहा है। इतने में ही यदि उस ओर से कोई पानी का घड़ा भरा हुआ ला रहा होता है तो उसे देखकर हम यह जान जाते हैं कि जो जल-ज्ञान में हुआ है. वह बिलकुल सच्चा है। इस तरह अनभ्यस्त विषय में--अपरिचित ग्राम जलाशय आदि में-जायमान ज्ञान के का भान अन्य कारणों के अधीन होने के कारण प्रमाणता की ज्ञप्ति को परतः कहा गया है ।। १३ ॥
॥ प्रथमोऽध्यायः समाप्तः ।।
१. शप्तिः अभ्यस्तविषये स्वतः, अनभ्यस्तविषये तु परत:, परिचित स्वग्राम तटाफ जलादिरभ्यस्तः, अपरिचित स्वग्राम तटाक जलादिरमभ्यस्तः ।
न्याय दीपिकायाम् ।