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न्यायरत्न : न्यायरत्नावली टीका : चतुर्थ अध्याय, सूत्र ५
प्रश्न- आपने शब्द में पौगलिकता सिद्ध करने के लिये जो "मृतिमत्त्वात्" हेतु दिया है, वह स्वरूपासिद्ध है क्योंकि शब्द में यह हेतु रहता ही नहीं है। कारण कि बस से विहीन माना गया है। तथा अत्यन्त सघन प्रदेश में प्रवेश करते और निकलते हुए वह रुकता नहीं है। इसके पूर्व और पश्चात् उसके अवसत्र उपलब्ध नहीं होते हैं। सूक्ष्म मूर्त्त द्रव्यों का वह प्रेरक नहीं है । तथा वह आकाश का गुण है ।
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उत्तर---यहाँ " मूत्तिमत्त्वात् " जो ऐसा हेतु दिया गया है वह स्वरूपासिद्ध नहीं है। क्योंकि इसके निषेध के लिये जो उसे स्पर्णविहीन कहा गया है प्रत्युत वही स्वरूपासिद्ध है। क्योंकि शब्द में स्पर्श बत्ता' है. और स्पर्शवत्ता उसमें होने का कारण उसका पौद्गलिक भाषावर्गणाओं से निष्पन्न होना ही है । सजातीय वस्तुओं के समूह का नाम वर्गणा है। जिन पुदगल वर्गणाओं से शब्द निम्पन्न होते हैं उन्हें भाषा वर्गणा कहते हैं ! भाषा वर्गणा स्पर्शगुण युक्त होती है । यदि शब्द स्पर्शवाला नहीं होता तो यह श्रोत्र न्द्रिय का विषय नहीं होता। हमें यह स्पष्ट रूप से प्रतीत होता है, कि जिस प्रकार गन्धाश्रित परमाणु वायु के अनुकूल होने पर दूर स्थित मनुष्य के पास पहुँच जाते हैं और प्रतिकूल वायु के होने पर पार्श्वस्थित भी मनुष्य के पास नहीं पहुँच पाते हैं। इसी प्रकार शब्द भी प्रतिकूल बायु के होने पर पार्श्वस्थित भी श्रोता के पास नहीं पहुँचता है, और अनुकुल वायु के होने पर दूर स्थित भी श्रोता के पास पहुँच जाता है । इस कथन से शब्द में गन्ध परमाणुओं की तरह स्पर्शवत्ता सिद्ध होती है, अतः स्पर्श वाले गन्ध परमाणुओं की तरह वह इन्द्रियग्राह्य होने के कारण मूर्तिमान होने से पौद्गलिक है । यह कथन निर्दोष है। तथा सघन प्रदेश में प्रवेश करते और निकलते हुए वह रुकता नहीं है इसलिये वह मूर्तिमान् नहीं है। ऐसा जो कहा गया है वह भी निर्दोष नहीं है। क्योंकि गन्ध द्रव्य भी तो सघन प्रदेश में प्रवेश करते हुए और निकलते हुए रुकता नहीं है परन्तु फिर भी वह पौद्गलिक माना गया है। इसी प्रकार से शब्द में भी यदि ऐसी बात होती है तो इससे उसकी मूत्तिमत्ता में क्या बाधा आती है ? कोई बाधा नहीं आती । तथा ऐसा जो कहा गया है, कि शब्द को मूर्तिमान् मानने पर उसके आदि-अन्त अवयव उपलब्ध होने चाहिये पर वे उपलब्ध नहीं होते । अतः मूर्तिमान नहीं है और मूर्तिमान नहीं होने से उसमें पौद्गलिकता भी सिद्ध नहीं होती है । सो ऐसा कथन उचित नहीं है-देखो बिजली या उल्कापात आदि ऐसे हैं कि जिनके आदि और अन्त अवयव नहीं उपलब्ध होते हैं फिर भी उन्हें पौद्गलिक माना गया है । इसी प्रकार से शब्द भी आदि अन्तावयव की उपलब्धि से विहीन होने पर भी मूर्तिमत्ता से विहीन नहीं माना जा सकता | शब्द को आकाश का गुण मानकर यदि वह मूर्तिमान् नहीं कहा जाये, तो यह मान्यता हंसी कराने वाली है । क्योंकि जब आकाश अमूर्तिक है, तो फिर उसका गुण यह शब्द भी अमूत्तिक ही होना चाहिये । तब फिर यह श्रोत्रेन्द्रियग्राह्य कैसे होता है ? अतः इन्द्रियग्राह्य होने से यह आकाश का गुप्य नहीं है, प्रत्युत मूर्तिमान् होने से यह पौद्गलिक ही है । ऐसा मानना चाहिये। इसी भाव को हृदयङ्गम करके टीकाकार ने "पोद्गलिक भाषावर्गणाभिनिष्पन्नोऽकारादिवर्ण रूपः " यह पाठ लिखा है ।। ५ ॥
१. जरन्मुर झर्झर स्फुरित वाकुक्रिया कर्कणः, प्रतिध्वनित घोरणारसित रोदसी कन्दरः भवत्यति समीप अंगिति झल्लरीझत्कृतः, स्तनन्प्रय शिशोर्वतारिता भ ुवं कर्णयोः । स्याद्वाव रत्नाकर पृष्ठ ६३६
न्या० टी० १२