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न्यायरत्न : न्यायरत्नावली टीका चतुर्थ अध्याय, सूत्र १२
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| १०१ स्पष्ट हो जाने पर अब टीकाकार इसी बात को यों समझाते हैं--जब ऐसा कहा जाता है कि "स्यात् सन्नेव घटः " तो इसका अभिप्राय यही होता है कि घट अपने द्रव्य से मृत्तिका रूप स्वोपादान द्रव्य की अपेक्षा से ही है पर द्रव्यरूप जलादिक की अपेक्षा से नहीं है । अपने क्षेत्र से जहाँ पर वह रखा हुआ है ऐसे मारवाड़ रूप स्थान की अपेक्षा से ही है । परन्क्षत्ररूप गुजरात की अपेक्षा वह नहीं है। अपने काल से - जिस काल में वह वर्त्तमान है ऐसे की अपेक्षा ही है। पाल की जिसमें वह वर्त्तमान नहीं है ऐसे वसन्तकाल की अपेक्षा से वह नहीं है। भाव से अपने में वत्तं मान नीलादि रूप पर्याय की अपेक्षा से ही है, पर-भाव रखतत्वादि वर्ण पर्याय की अपेक्षा से वह नहीं है । परद्रव्यादि चतुष्टय की अपेक्षा सेट में अस्तित्व आने के प्रसङ्ग को दूर करने के लिये जिस प्रकार से स्यात् पद कहा गया है. उसी प्रकार स्वचतुष्टय की अपेक्षा घट में नास्तित्व के प्रसङ्ग को वारण करने के लिये एवकार पद कहा गया है । इस प्रकार विधि अस्तित्व की प्रधानता को लेकर यह प्रथम भङ्ग कहा है ।। ११
सूत्र - स्यादसदेव सर्वमिति प्राधान्येन निषेधविवक्षया द्वितीयो भङ्गः ॥ १२ ॥
संस्कृत टीका — स्यात् — परद्रव्यक्ष ेत्रादिभिः जीवादिकं वस्तु असदेव - नास्त्येवेत्येवं रूपोऽर्थः प्राधान्येन निषेधस्य प्रतिपादकेन द्वितीय भङ्गवाक्येन प्रतिपाद्यते । स्वद्रव्यादिभिरित्र पर - द्रव्यादिभिरपि वस्तुनोऽसत्त्वानिष्टं प्रतिनियत स्वरूपाभावतो वस्तु प्रतिनिर्यात् नं स्यात् । न चास्ति त्वैकान्तवादिभिरन नास्तित्वमसिद्धमिति वाच्यं कथञ्चित् तस्य वस्तुनि युक्तिसिद्धत्वात् । हेतुवत् नहि क्वचिदनित्यत्वाद साध्ये सत्त्वादि साधनस्य अस्तित्वं विपक्ष नास्तित्वमन्तरेणोपपत्रम साधनत्वाभाव प्रसंगान् । तस्माद् वस्तुनि अस्तित्वं नास्तित्वेनाविनाभूतं नास्तित्वं च तेनेति सर्वानुभवसिद्धम् ।
सूत्रार्थ - किसी अपेक्षा जीवादिक वस्तु असत्स्वरूप ही है ऐसा यह प्रधान रूप से असत्त्व धर्म की विवक्षा करके समस्त वस्तु में नास्ति का --असत्व का कथन करने वाला द्वितोय भङ्ग है।
हिन्दी व्याख्या- " स्यादसदेव सर्वम्" समस्त जीवादिक वस्तुएँ कथञ्चित् असत् स्वरूप ही हैंजब ऐसा कहा जाता है तो इसका यही अर्थ होता है कि जिस प्रकार वे स्वरूपादि चतुष्टय की अपेक्षा सत्स्वरूप ही हैं उसी प्रकार वे पर चतुष्टय की अपेक्षा - परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभाव की अपेक्षा असत् स्वरूप ही हैं। स्वचतुष्टय की अपेक्षा जिस प्रकार से वस्तु में सत्त्व इष्ट माना गया है यदि इसी प्रकार से उसमें परचतुष्टय की अपेक्षा भी सत्त्व माना जावे -असत्व न माना जावे तो वस्तु का . प्रतिनियत स्वरूप व्यवस्थित नहीं हो सकता है और इस कारण यह अमुक वस्तु है, यह अमुक वस्तु है - इस रूप से वस्तु की स्वतन्त्र सत्ता भी नहीं सध सकती है।
प्रश्न - जो अस्तित्वैकान्तवादी हैं--वस्तु एकान्ततः अस्तित्व धर्म से ही युक्त है-ऐसी जिनकी मान्यता है उनके यहाँ तो किसी भी अपेक्षा नास्तित्व धर्म वाली वस्तु मानी नहीं गई है अतः समस्त वस्तु नास्तित्व धर्मवाली हैं, ऐसा आमका कहना असिद्ध है ।
उत्तर- ऐसा नहीं कहना चाहिये। क्योंकि ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है जो एकान्ततः अस्तित्व धर्मत्रिशिष्ट ही हो, नास्तित्व धर्म विशिष्ट न हो। क्योंकि यह बात युक्ति से घटित होती है कि अस्तित्व बिना नास्तित्व के और नास्तित्व बिना अस्तित्व के रह ही नहीं सकता है । ये दोनों परस्पर में अविनाभावी हैं । जिस प्रकार सत्त्वरूप हेतु का अपने अनित्यरूप साध्य वाले पक्ष में अस्तित्व विपक्ष से व्यावृत्त हुए विना