Book Title: Nyayaratna Sar
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: Ghasilalji Maharaj Sahitya Prakashan Samiti Indore

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Page 243
________________ न्यायरत्न : न्याय रत्नावली टोका :पंचम अध्याय, सूत्र १३ प्रकार से यदि क्रिया की क्रियावान् पदार्थ के साथ प्रतिनियत व्यवस्था ठहराई जाती है तो क्रिया में अपने क्रियावान् पदार्थ से सर्वथा भिन्नता सिद्ध नहीं होती है। इसी प्रकार यदि क्रिया क्रियावान् पदार्थ से सर्वथा अभिन्न मानी जावे तो वहाँ पर यह क्रिया है और यह क्रियावान् पदार्थ है इस प्रकार की भेद प्रतीति नहीं हो सकती है या तो क्रिया की ही प्रतीति होगी या क्रियावान् पदार्थ की ही प्रतीति होगी, दोनों की युगपत्प्रतीति नहीं होगी । इसलिये क्रिया क्रियावान् में परस्पर में कञ्चित् भिन्नता या कथञ्चित् अभिन्नता स्वीकार करनी चाहिये । कथंचिन् ना तो इसलिये स्वीकार करनी चाहिये कि क्रियावान में और क्रिया में परस्पर में साध्य साधक भाव उपलब्ध होता है, क्रियावान् साधक और क्रिया साध्य होती है, इस सम्बन्ध की अपेक्षा इनमें भिन्नता और प्रिया रूप से ही तो परिणमन क्रियावान् पदार्थ का होता है। अतः इस सम्बन्ध से वह क्रियावान् से कथञ्चित् अभिन्न है, एसा बात मानना चाहिये । प्रकृत में प्रमाता के आश्रय प्रमाणभूत ज्ञान के द्वारा जो अज्ञाननिवृत्तित्प क्रिया उत्पर की जाती है वह उसका साधक होता है और क्रिया साध्य होती है । इस तरह प्रमाता आत्मा में और अज्ञाननिवृत्तिरूप प्रमिति प्रिया में साध्य-साधक भाव उपलब्ध होने से कथंचित् परस्पर में भिन्नता है और इसाप्रमितिरूप क्रिया रूप से आमा ही परिणमित होती है. इस अपेक्षा उन दोनों में कथंचित् अभिन्नता है। जिस प्रकार छिदि क्रिया में देवदत्त साधक होता है और कुटार साधकतम होता है उसी प्रकार प्रमितिरूप क्रिया में आत्मा साधक और प्रमाणभूत ज्ञान साधकतम होता है । परन्तु प्रमाणभूत ज्ञान से परिणमन आत्मा का ही होता है और उसी ज्ञान के द्वारा जन्य प्रमिति क्रिया म्रूप से परिणत आत्मा ही होती है. इस अपेक्षा प्रमाला आत्मा और प्रमिति क्रिया में परस्पर में कथंचिद् भिन्नता और कथञ्चित् अभिन्नता का प्रतिपादन किया गया है ।।१२।। सूत्र-प्रमाण फल व्यवहारोक्तियोऽभिप्रेताउनभिप्रेतसाधन पणत्वान्यथानुपपत्तेः ।।१३॥ संस्कृत टीका-प्रमाण तत्फलयोः परस्परं कथञ्चिभिन्नत्वमाभिन्नत्वं च प्रतिपाद्य स्वमत व्यामोहाद नादि कश्चिदेवं वात् यत् प्रमाण फलादिरूप व्यवहारो न पारमार्थिको वितथत्वात् तदा सूत्रकारेणोक्तं प्रमाण फलादि रूपोऽयं व्यवहारो न वितथः स्वाभिप्रेतेष्ट साधकनस्यानभिप्रेतानिष्ट दूषणस्य च व्यवस्थां कत मशक्पवात् । नहि वाङ मात्रेण स्वाभिप्रेत सिद्धिर्भवतुमहीं सर्वेषां स्वेट तत्त्व सिद्धि प्रसङ्गात् अथ चेन् स्वपक्षसंसिद्धये किमपि प्रमाणभङ्गी कुरुते हि तत्र तेना वितथता स्वीकत'च्या भवति । नो चेत्स्वपक्ष सिद्धिः कथमिव भवेत् । अतः स्वमत व्यामोहं परित्यज्य प्रमाणफल व्यवहारः पारमार्थिक एवेति मन्तव्यम् तथा च सति "सर्व एवायमनुमानानुमेय व्यवहारो बुद्ध या रूवेन धर्ममि भावेन न बहिः सदसत्त्वमपेक्षते' इति कथनं न शोभते । अर्थ--यह प्रमाण और यह प्रमाण का फल है, ऐसा जो व्यवहार है वह अवितथ–पारमार्थिकवास्तविक है । यदि इसे वास्तविक न माना जाय तो फिर स्व-पक्ष की सिद्धि और पर-पक्ष का निराकरण नहीं किया जा सकता है। हिन्दी व्याख्या-प्रमाण और उसके फल में कश्चित् भिन्नता और कथञ्चित् अभिन्नता का प्रतिपादन अच्छी तरह से कर दिया गया है। अब यदि कोई स्वमत के व्यामोह से प्रमाण और उसके फल के व्यवहार को अपारमार्थिक-काल्पनिक मानकर ऐसा कहता है कि प्रमाणफलादि रूप जो व्यवहार

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