Book Title: Nyayaratna Sar
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: Ghasilalji Maharaj Sahitya Prakashan Samiti Indore

View full book text
Previous | Next

Page 242
________________ १४२ न्याय रत्न : न्यायरत्नावली टीका : पंचम अध्याय, सूत्र १२ पूर्व प्रमाणफलयोः कथञ्चिद भिन्नत्वप्रतिपादनावसरे प्रमाणपलयोः कार्यकारण सम्बन्धस्तद्धे तुः कथितः, तश्राव्यवहितपूर्वसूत्रण प्रमाणभूतज्ञाने साक्षात्फलं प्रति करणत्वात् कारणता समर्थिता, अनेन सूत्रेण तु साक्षात्फलभूतेऽज्ञाननिवृत्तौ कार्यत्वं समर्थ्य ते, तत्तुप्रमाण निष्पाद्यत्वात्-प्रमाणभूत ज्ञान जन्यत्वात् इत्यादिना सूत्रण तत्र प्रमाणभूत ज्ञानस्यैत्र करणत्व समर्थनात् जन्यत्वं बोध्यम यथा कुटारादि करणशाध्या छिदिक्रिया तस्मात् कथंचिदभिन्ना व्यवहियते एवमेवाज्ञाननिवत्तिरूपं साक्षात्फलमपि प्रमाणतः कथंचिद भिन्नं भवति तस्याः प्रमाणसाध्यत्वात् ।। ११ ।। हिन्दी व्याख्या-जब यह बात अच्छी तरह से समर्थित हो चुकी है कि प्रमाणभूत ज्ञान से ही अज्ञाननिवृत्ति रूप साक्षान्फल उत्पन्न होता है क्योकि वहीं उसके प्रति साधकतम है तो इस बथन से यह बात स्वतः सिद्ध हो जाती है कि वह अज्ञाननिवृत्तिरूप साक्षात् फल प्रमाणभूत ज्ञान द्वारा साध्य होने से उसका कार्य है। जहां पर कार्यकारण भाव होता है वहाँ किसी अपेक्षा भिन्नता भी होती है । जिस प्रकार छिदि-क्रिया जो कि कुठार से ही जन्य होती है अपने करणभूत कुठार से कथंचित् भिन्न होती है । प्रश्न-जन यह बात सिद्ध हो जाती है तो फिर इसके लिये स्वतन्त्र सुत्र बनाने की क्या आवश्यकता थी? उत्तर-मत्रकार जीवों का जैसे मी भला हो उसी प्रकार से उनके भन्ने होने का उपाय सोचा करते हैं । ठीक है, विज्ञजन तो पुर्वोक्त कथन से यह तात जान जाते निः अजाननिवृत्तिरूप क्रिया प्रमाणभूत ज्ञान से ही साध्य होती है अतः वह उसकी कार्यभूत है, परन्तु जो अबुद्ध हैं बिना समझाये नहीं समझते हैं, उन्हें भी तो समझाना है अतः उन्हें सगझाने के लिये इस सूत्र का निर्माण सार्थक है। सूत्र–क्रिया क्रियाक्तोमिथः स्याद्भिन्नत्वाभिन्नत्वेन प्रमातुरपि तस्यास्तदने कान्तो नेयः ।।१२।। संस्कृत टीका-प्रतिनियत क्रिया क्रियावदभाब प्रसङ्गापत्तितः क्रिया भियावतो न सर्वथा भिन्ना, नापि च सर्वथाऽभिन्ना, यदि क्रिया क्रियावतः सर्वथा भिन्ना स्यात्तदा सम्बन्धाभावतोऽस्यैव कियावतः कर्तुरिय क्रिया नान्यस्येति प्रतिनियत व्यवस्था न स्यात्, प्रतिनियत व्यवस्थायर्या च न सर्वथा तस्यां तद्वतो भिन्नत्वमायाति, यदि सा स्वाथयतोऽभिन्ना भवति तदाऽपि क्रियाश्रय मात्र क्रियामात्र वा वास्तविकं भवेत् नतु तदुभयम्, तस्मात् स्वाभयतः सा कथंचिद्भिन्नाभिन्नाऽङ्गी कर्तव्या क्रियावतः कर्तुः क्रियायाश्च साध्य साधक भावेन उपलम्भात्, कथंचित् सा तस्माद् भिन्ना, क्रियारूपेण क्रियावतः, कत्तुरेव परिणतत्वात् कथंचित् सा तस्मादभिन्ना, स्वपर व्यवसि तिरूपा अजान निवृति क्रिया आत्माश्रयैत्रोत्पद्यते प्रमाणभूत ज्ञानेनातस्तस्यां क्रियायां तस्य साधकाल्वात् क्रियायाश्च साध्यत्वात् उभयोः साध्य साधफ भावेन स्याद्भिन्नत्वं, प्रमितेश्चाज्ञाननिवृत्ति रूपायाः प्रमातुश्च परस्परमभेदात्कथं चिदभिन्नत्वमिति । ___अर्थ-क्रिया और क्रियावान पदार्थ में कथंचित् भिन्नता और कथंचित अभिन्नता होती है, सर्वथा भिन्नता या सर्वथा अभिन्नता नहीं है इस सिद्धान्त के अनुसार प्रमाता आत्मा से भी अज्ञाननिवृत्ति आदि रूप क्रिया कथंचित भिन्न और कथंचित् अभिन्न होती है, ऐसा अनेकाम्न इन दोनों में स्थापित कर लेना चाहिए। हिन्दी व्याख्या-यदि क्रिया और क्रियावान पदार्थ में परस्पर में सर्वथा भिन्नता मानी जावे तो यह क्रिया इस क्रियावान् पदार्थ की है अन्य की नहीं है ऐसा व्यवहार नहीं हो सकता है क्योंकि शिया और क्रियावान् पदार्थ का इस प्रकार के व्यवहार का हेतुभूत वहां कोई सम्बन्ध तो है ही नहीं क्योंकि वे तो आपस में बिलकुल भिन्न-भिन्न ही हैं, यदि यह क्रिया इसी क्रियावान पदार्थ की है अन्य की नहीं है इस

Loading...

Page Navigation
1 ... 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298