Book Title: Nyayaratna Sar
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: Ghasilalji Maharaj Sahitya Prakashan Samiti Indore

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Page 289
________________ न्यायरत्न : न्यापरलावली टीका षष्ठम अध्याय, सूत्र ३० १८६ सूत्र - - प्रत्यक्षादि प्रमाणसिद्धः प्रमाता चैतन्यस्वरूपो ज्ञानादि परिणामी कर्त्ता भोक्ता, गृहीत परिमाणः प्रतिशरीरं भिन्नः पौद्गलिकादृष्टवान् कथंचिन्नित्यः आत्मा ॥ ३० ॥ संस्कृत टीका - प्रमातुरात्मनः स्वरूपं निरूपयितुमिदं सूत्रं प्रतिपादितं सूरिभिस्तथा च अहं सुखी, अहं दुःखी, अहं जानामि, अमिच्छामीत्यादिरीत्या प्रत्येक जीवानां स्वसंवेदनेन सिद्धः -- अहं प्रत्ययेन वेद्यः, स्वशरीरवर्तन आत्मनो मानस प्रत्यक्ष सिद्धत्वात् परशरीरवर्तन आत्मनस्तु अनुमान गम्यत्वात् ऐतेन यदुक्त परेण—अहंकार प्रत्ययसमुत्थेन मानसप्रत्यक्षणेणोहं गौरः श्यामो वेत्यादी शरीराश्रयतयाऽपि समुत्पद्यमानः त्वेनानैकान्तिकत्वान्ना मनस्तेन सिद्धिस्तदपाकृतमहं सुखी अहं दुःखी इति अन्तर्मुखस्य प्रत्ययस्यात्मालम्बनतयैवोत्पत्तेः । न च वाक्यं पृथिव्यादि पाञ्चभौतिकमेव शरीरं चैतन्यरूप आत्मा मृतशरीरेषु चैतन्यानुपलन्ध्यादस्य स्वतन्त्र सिद्ध े । योऽहमेतद्राक्षं सोऽहमधुना एनं स्पृशामित्येवं रूपेण प्रत्यभिज्ञानेनाप्यात्मनोऽस्तिस्वसिद्ध ेः कथं तदभावो वक्तुगुचितः स्यात् । यदि च शरीरमेवात्मा स्थात्तहि बालशरीरयुवशरीराणामुपयापचयेन परस्परभिन्नेन बाल्ये विलोकितु यौवने स्मरणं न स्यात् अन्य दृष्यस्य वस्तुनोऽन्येन स्मरणाभावात् इत्यादिरूपानेकविधकार्याणां सद्भावएवात्मनः स्वतन्त्रसत्ताख्यापकोऽस्तीतिमन्तव्यम् । आत्मा चैतन्ये स्वरूपत्वात् प्रमाता संवेदनशीलो वर्तते अचेतनत्वात् शरीरस्य संवेदनशीलत्वाभावो वर्तते ज्ञानेच्छा सुख-दुःखादि पर्यायतया परिणमनस्वभावात् ज्ञानादि परिणामी सः । शुभाशुभकर्मणां कर्तृत्वात् कर्त्ता तेषां फलभोक्तृत्वाद्भोक्ता च प्रदेशसंहार विसर्पण स्वभाववत्त्वात् प्राप्तशरीरं परिमाणः, प्रतिशरीरं पृथक-पृथक तस्य वर्तमानत्वात् प्रतिशरीरं भिन्नः, न तु सर्वशरीरप्येक एवात्माव्यापकत्वात् पुद्गलमय पुण्यपापरूपदृष्टवत्त्वात् पौद्गलिकाहष्टत्वान् आत्मद्रव्यत्वेन कथंचित्र नित्यः । अत्रात्मनश्चैतन्य स्वरूपप्रतिपादनेन ज्ञानाभिन्नात्मवादिनां नैयायिकानां मतमपाकृतम् । परिणामपदोपादेन आत्मनः कूटस्थनित्यवादिवेदान्त्यादीनां मतं निरस्तम् । कर्तृ भोक्तृपदोपादेन सांख्याभिमतपुष्कर पलाशवन्निर्लेपस्वरूपत्वमात्मनो निर्लोठितम् । स्वशरीरं परिमाणकथनेन आत्मनो विभुत्ववादिनां नैयायिकानां मतमपाकृतम् । प्रतिशरीरं भिन्नत्वकथने नाई तात्मवादिवेदान्तीनां मतं पराहतम् । पौद्गलिकादृष्टवानिति कथनेन च अपौद्गलिकाइष्टवादिनां नैयायिकानां मतं व्यपोहितम् ||३०|| अर्थ --- प्रमाणादि के स्वरूप का कथन करके अब सूत्रकार प्रमाता के स्वरूप का कथन करते हुए समझाते हैं कि प्रमाता आत्मा होता है और यह आत्मा प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सिद्ध है, संवेदनशील है, चैतन्यस्वरूप है, ज्ञानादिरूप परिणामों वाला है, कर्ता है, भोक्ता है, अपने द्वारा प्राप्त किये हुए शरीर के बराबर है । हर एक शरीर में यह भिन्न-भिन्न है। पौद्गलिक अदृष्ट वाला है और कथञ्चित् नित्य है ॥ ३० ॥ हिन्दी व्याख्या - यह सूत्र सूत्रकार ने प्रमाता - आत्मा के स्वरूप का प्रतिपादन करने के लिए रचा है। इसके द्वारा उन्होंने यह स्पष्ट किया है कि यह आत्मा नाम का पदार्थ कल्पित नहीं है किन्तु इसके अस्तित्व के व्यापक प्रत्यक्षादि प्रमाण हैं- मैं दुःखी हैं, मैं सुखी हूँ, मैं जानता है, मैं चाहता है, इत्यादि रूप से जो प्रत्येक जीवों को स्वसंवेदन प्रत्यक्ष होता है उससे इसकी सिद्धि होती है ।। ३० ।। प्रश्न- मैं सुखी हूँ, मैं दुःखी हूँ इत्यादि रूप से जो अहं प्रत्यय होता है वह आत्माश्रित नहीं होता है किन्तु में गोरा हूँ, मैं काला हूँ इत्यादि प्रत्यय की तरह शरीराश्रित ही होता है अतः इससे आत्मा का स्वतन्त्र अस्तित्व कैसे सिद्ध हो सकता है ? उत्तर- ऐसा कहना उचित नहीं है क्योंकि मैं गोरा हूँ, मैं काला हूँ ऐसा जो प्रत्यय होता है वह राश्रित नहीं होता है किन्तु प्रिय नौकर में अहं बुद्धि की तरह आत्मा का उपकारक होने से ही शरीर

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