Book Title: Nyayaratna Sar
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: Ghasilalji Maharaj Sahitya Prakashan Samiti Indore

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Page 287
________________ भ्यायरत्न : न्यायरत्नावलो टोका : पष्ठम अध्याय, सूत्र २७-२८ १८७ विषयत्वं च ज्ञातव्यम् एवं सति नंगमनयः सर्वनयापेक्षया महाविषय एवंभूतस्तु परिमितविषयः । शेषनया यथास्वं परिमितविषया अपि महाविषया अपि ज्ञातव्याः ।। २७॥ हिन्दी व्याख्या-इस सूत्र द्वारा सूत्रकार ने यह ममझाया है कि इन नयों में महाविषयता और अल्पविषयता किस प्रकार से आती है। जब हम इतके विषय का विचार करते हैं तो पश्चानुपूर्वी के अनुसार यहाँ एवंभूतनय को पहले ग्रहण किया जाता है, उसके बाद समभिरूढनय को फिर शब्दनाय को फिर ऋजुसूत्र नय को फिर व्यवहारनय को फिर संग्रहनय को और अन्त में नंगमनय को ग्रहण किया जाता है । तथा पूर्वानुपूर्वी के अनुसार नैगम संग्रह व्यवहार ऋजु सूत्र शब्द समभिरूढ और एवंभूत इस प्रकार इमका ग्रहण होता है । पश्चानुपूर्वी के अनुसार इनके विषय के अल्पबहुत्व का विचार करने पर सबसे कम विषय वाला एवंभूतनय है और सबसे अधिक विषयवाला नेगममय है। क्योंकि यह नय भावात्मक सत्ता और अभावात्मक असत्ता दोनों धर्म धर्मी रूप पदार्थों को दोनों धर्मों को एवं दोनों धर्मियों को प्रधान और अप्रधानरूप से प्रतिपादित करता है, तथा संग्रहनय सामान्य-विशेषात्मक पदार्थ को प्रधान रूप से सत्ता सामान्य को लेकर प्रतिपादित करता है अतः नैगमनय की अपेक्षा यह अल्प विषयवाला है और इसकी अपेक्षा नैगमनय अधिक विषय बाला है। संग्रहनय सत्ता सामान्य को विषय करता है और व्यबहारनय अबान्तर सत्ताविशिष्ट पदार्थों का इस ढंग से प्रतिपादन करता है कि जिससे वे व्यवहारोपयोगी बन सके । इस तरह संग्रहनय की अपेक्षा व्यवहारनय अल्पविषयवाला और व्यवहारनय को अपेक्षा संग्रहनय अधिक विपयबाला सिद्ध हो जाता है । व्यवहारनय त्रिकालवर्ती सत्ताविशिष्ट पदार्थों का विधिपूर्वक भेद-प्रभेद करता हुआ उन्हें विषय करता है और ऋजुसुत्रनय केवल वर्तमानक्षणवर्ती पदार्थों को विषय करता है अतः व्यवहारनय की अपेक्षा ऋजुसूत्रनय अल्पविषयवाला है और ऋजुसूत्र की अपेक्षा व्यवहारनय अधिक विषयवाला है । शब्दनय कालादि के भेद को लेकर पदार्थ में भेद मानता है और ऋजुसूत्रनय कालादि के भेद को लेकर पदार्थ में भेद नहीं मानता है अतः कालादि को अपेक्षा लेकर पदार्थ में भेद मानने वाले शब्द नय की अपेक्षा कालादिक को लेकर पदार्थ में भेद नहीं मानने वाले ऋजुसुत्र का विषय अधिक है और शब्दनय का विषय अल्प है। समभिरुनय तो ऐसा है कि काल आदि का भेद न होने पर भी प्रत्येक शब्द का भिन्न-भिन्न अर्थ मानता है परन्तु शब्दमय ऐसा नहीं मानता है अतः समभिरूढनय की अपेक्षा शब्दनय का विषय अधिक है और शब्दनय की अपेक्षा समभिरूतुनय का विषय अल्प है। समभिरूढनय पर्यायवाचि शब्दों का क्रियाभेद को लेकर और क्रियाभेद को नहीं भी लेकर भिन्न-भिन्न अर्थ प्रतिपादन करता है और एवंभूतनय क्रियाभेद को लेकर ही-अर्थात् जिस शब्द के द्वारा उस पदार्थ का प्रतिपादन करता है वह पदार्थ यदि उस समय उस शब्द की प्रवृत्ति की निमित्तभूत क्रिया से युक्त है तब ही वह पदार्थ उस शब्द का वाच्य हो सकता है इस रूप से उसका प्रतिपादन करता है अतः एवंभूतनय को अपेक्षा समभिरूढनय महान् विषयवाला है और एवंभूतनय अल्पविषयवाला है। इस तरह उत्तरोत्तर नयों की अपेक्षा पूर्वनयों में अधिक-अधिक विषयता बाती है और पूर्व-पूर्व नयों की अपेक्षा आगे के नयों में अल्पविषयता आती है ऐसा जानना चाहिये । इस कथन से यह हम अच्छी तरह से ज्ञान कर लेते हैं कि नैगमनय सर्वनयों को अपेक्षा अधिक विषय वाला और एवंभूतनय अल्पविषयवाला है । बाकी के और नय यथायोग्यरीति से अपेक्षाकृत अल्पविषय वाले भी हैं और अधिक विषय वाले भी हैं ।। २७ ।। सूत्र-विधिनिषेधाभ्यां नयवाक्यमपि सप्तभङ्गात्मकम् ॥ २८ ॥ संस्कृत टीका-अपि शब्दात् प्रमाणवाक्यवदिति सूच्यते तथा च यथा विधिनिषेधाभ्यां प्रमाण

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