Book Title: Nyayaratna Sar
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: Ghasilalji Maharaj Sahitya Prakashan Samiti Indore

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Page 295
________________ न्यायरल : न्यायरत्नावली टीका : षष्ठम अध्याय, सूत्र ३६ १६५ गुर्वादि के निकट जाकर वीतराग कथा में प्रवृत्त होता है । अर्थात् बड़े नम्रभाव से बिना किसी जय-पराजय की भावना के वह उनसे उस संशय को दूर करने की चेष्टा करता है, उनसे तर्क-वितर्क करता है और कोई एक शिष्य ऐसा होता है कि दूसरे जन इस तत्त्व को समझें इस अभिप्राय से गुर्वादिजनों से उस तत्त्व के सम्बन्ध में तर्क-वितर्क करता है इस तरह की वीतराग कथा के करने से तत्त्व निर्णयेच्छुजन स्वात्मा में तत्त्व का निर्णय प्राप्त कर लेता है और फिर वह अपने द्वारा पर की आत्मा में तत्त्व का निर्णय करा देता है। सूत्र-प्रथमः शिष्यादिद्वितीयः क्षायोपशमिकक्षायिकज्ञानवान गुर्वादिः ।। ३६ ॥ संस्कृत टोका--पूर्वं तत्त्वनिर्णयेच्छोरपरपर्यायस्य तत्त्वनिर्णिनीषो कैविध्यमुक्तं सम्प्रति तदेव द्वैविध्यमुदाहरण मुखेन प्रतिपादयितुं प्रकारान्तरं प्रदर्श्यते तत्र प्रथमः शिष्यादिविनेयजनः, द्विनीयो गुर्वादिः प्रथमादिशब्दात् शिष्यसहाध्याग्निसुहृद् वर्गादिर्ग्राह्यः, द्वितीयादि शब्दादाचार्योपाध्यायगणि तीर्थंकरादिाह्यः । परात्मनि तत्त्वनिर्णयेच्छोगु देिव विध्यं क्षायोपशमिकक्षायिकज्ञानिभेदा जायते । तत्र ज्ञानावरण कर्मणः सर्वघातिस्पर्द्ध कानामुदयाभाविक्षयात्तेषामेव सदुपशमादेश घातिस्पर्धकानामुदये निप्पन्न मतिश्र - तावधिमनःपर्ययरूपं ज्ञानं व्यस्तं समस्तं वा यस्यास्ति स क्षायोपशमिकज्ञानी, ज्ञानावरणकर्मणः सर्वथा क्षयेण निष्पन्न केवलज्ञानं यस्यास्ति स क्षायिकज्ञानी शिष्यादिरूपपरात्मनि तत्त्वनिर्णयेच्छुः क्षायोपशमिक ज्ञानशाली क्षायिकज्ञानशाली च भवति एतेनेदमवगन्तव्यं यत् वीतरागकथारम्भकाणां स्त्रयोभेदा भवन्ति । विनिगम कथारम्भकाण'मेक एन भयो भनति, प्रभा -(१) स्वात्मनि तत्त्वनिर्णयेच्छुः (२) परात्मनि तत्त्व निर्णयः क्षायोपशमिकज्ञानी (३) परात्मनि तत्वनिर्णयेच्छुः क्षायिकज्ञानी च । नहि कश्चिदपि प्रेक्षावान् विजिगोषः स्वात्मानं विजेतुमिच्छति नापि केवली परं पराजेतुमिच्छति तस्य वीतरागत्वात् अतः स्वात्मनि विजिगीषुभेदो न भवति परात्मनि केवलिरूपो विजिगीषु भेदश्च न संभवति अपितु परात्मनि क्षायोपशमिकशालि विजिगीषु एक एव भेदो भवति स्वात्मनि तत्त्वनिर्णयेच्छुरपि क्षायोपशमिकज्ञानशाल्येव भवति न तु क्षायिकज्ञानशाली केवली तस्य क्षायिकज्ञानशालिनः केवलिनो निर्णीत सकल तत्त्व ज्ञानशालिस्वात् स्वास्मनि तत्त्वबोधस्य निष्पन्नत्वेन तत्त्व बुभुत्साऽभावात् तस्मात् स्वात्मनि तत्त्वबुभुत्सुरपि विजिगावदेकरूप एव क्षायोपशामकज्ञानशाली भूतोबोध्य परात्मनि तत्त्वबुबोधयिषस्तु द्विविधो भवति क्षायोपशमिक ज्ञानशाली क्षायिकज्ञानशाली चेति ।। ३६ ॥ अर्थ-जो तत्त्वबुभुत्सु तत्त्वनिर्णयेच्छु प्रथम प्रकार का होता है अर्थात् स्वात्मा में तत्त्वनिर्णय की इच्छावाला होता है वह शिष्य आदि रूप होता है और जो परात्मा में तत्त्वनिर्णय की अभिलाषावाला गुरु आदि दो प्रकार का होता है एक क्षायोपशमिकज्ञानशाली गुरु आदि और दूसरा क्षायिकज्ञानशाली गुरु आदि ।। ३६ ।। हिन्दी व्याल्या-तत्त्वनिर्णयेच्छ शब्द का पर्यायवाची तत्त्वनिर्णिनीषु है। यह तो पहले ही स्पष्ट किया जा चुका है कि यह तत्वनिर्णये स्वात्मा में और परात्मा में तत्त्वनिर्णय की ही अभिलाषा वाला होता है, जय-पराजय की अभिलाषा वाला नहीं होता है इसी बात को सूत्रकार ने यहाँ उदाहरण देकर स्पष्ट किया है । प्रथम प्रकार का जो तत्त्वनिर्णयेच्छु होता है वह शिष्यादिरूप होता है और द्वितीय प्रकार का जो तत्वनिर्णयेच्च होता है वह गुरु आदि रूप होता है। प्रथम आदि शब्द से शिष्य के सहाध्यायी सुहृदवर्ग का संग्रह और द्वितीय आदि शब्द से आचार्य उपाध्याय गणी एवं तीर्थकर आदिकों का संग्रह हुआ है । स्वात्मा में तत्त्वनिर्णयेच्छु एक ही प्रकार के ही होते हैं । क्योंकि परात्मा में तत्त्वनिर्णय की

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