Book Title: Nyayaratna Sar
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: Ghasilalji Maharaj Sahitya Prakashan Samiti Indore

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Page 293
________________ न्यायरल : न्यायरलावली टीका : षष्ठम अध्याय, सूत्र ३३-३४ संस्कृत टीका-तत्र जयपराजय' निरपेक्षयो गुरुराशिष्ययोस्तत्त्वनिर्णयार्थं क्रियमाणो विचारो तत्त्वनिर्णयेच्छु कथा तद्विपरीता च कथा विजिगीषु कथा संवं वादरूपा सा च वादि प्रतिवादिभ्यां जयपराजयपर्यन्तं स्वाभिमत धर्मव्यवस्थापनार्थं परपक्ष निराकरणार्थं च क्रियते । हिन्दी व्याख्या-जय पराजय की इच्छा नहीं रखते हुए गुरु आदि और शिष्य आदि का जो केवल तत्त्वनिर्णय करने के निमित्त परस्पर में विचार विनिमय होता है उसका नाम तत्त्वनिर्णयेच्छु कथा है । यह कथा वीतराग कथा रूप होती है । इस कथा को वाद रूप नहीं माना गया है। वाद तो विजिगीषु कथा को ही माना गया है । यह वादी प्रतिवादी दोनों में होती है, गुरु शिष्य में नहीं होती है, एक ही अधिकरण में, एक ही काल में जब परस्पर सहानवस्यारूप विरोध वाले दो धर्मों में से किसी एक स्वाभिमत धर्म की व्यवस्था करने के लिये और पराभिप्रेत धर्म का निराकरण करने के लिये वादी और प्रतिवादी द्वारा साधन और दूषणरूप वचनों का प्रयोग किया जाता है उसी का नाम वाद है। यह वाद वादी-प्रतिवादियों में जय और पराजयपर्यन्त चलता है ॥ ३२ ॥ सूत्र-तत्त्वनिश्चयाय क्रियमाणो जयपराजयविहीनो विचारः तत्त्वनिर्णयेच्छु कथा ॥३३।। संस्कृत टीका-तत्त्वनिर्णयेच्छुस्तावत् सिद्धान्तप्रतिपादितं तत्त्वं सम्यग्रीत्या स्वात्मनि परास्मनि वा व्यवस्थापनार्थमभिलषति न चात्र कश्चित् पक्ष-प्रतिपक्षग्रहो भवति--रागद्वेषाभावात् तत्त्वनिर्णयकामुकत्वात् तत्र तत्त्वनिर्णयार्थ यद्यपि पक्ष-प्रतिपक्षग्रहो भवति तथापि तत्र जयपराजयाभिलाष प्रयुक्तयोस्त. योरभावाज्जयपराजय व्यवहारो न जायते वादि-प्रतिवादिस्वाभावाच्च वादव्यवहारो न जायते केवलं तत्त्वनिर्णयार्थ विचार विनिमयस्य जायमानत्वेन तत्र वीतरागत्वेम । ___ अर्थतत्त्वनिर्णय के लिये जयपराजय विहीन किया गया जो विचार है वह तत्त्वनिणयेन्द्र कथा है। हिन्दी व्याख्या-जो सिद्धान्तोक्त तत्त्वों को अच्छी तरह से समझने के लिये तथा पर को समझाने के लिये अभिलाषी होता है उसका नाम तत्त्वनिर्णयेच्छ या तत्त्वबुभुत्म है। शिष्य को जब किसी सिद्धान्तोक्त तत्व में सन्देह होता है तब वह उसके समाधानार्थ गुरुजनादि से पूछता है, उनके साथ विचार-विनिमय करता है । उस विचार-विनिमय में पक्ष-प्रतिपक्ष का ग्रहण नहीं होता है क्योंकि वहाँ तो केवल तत्त्व निर्णय करने की ही अभिलाषा रहा करती है, रागढष का अभाव होता है, वे तो सिर्फ तत्त्व निर्णय करने के ही कामना वाले होते हैं। यद्यपि तत्व-निर्णय के निमित्त पक्ष-प्रतिपक्ष का भी ग्रहण होता है परन्तु वह जय-पराजय की अभिलाषा से प्रयुक्त नहीं होता है अतः उन दोनों के विचार विनिमय में जय. पराजय का व्यवहार नहीं होता है तथा वे जय-पराजय की भावनावाले वादी और प्रतिवादी के रूप में नहीं होते हैं, इसलिये उनके उस विचार में वाद का व्यवहार नहीं होता है। इस प्रकार तत्त्वनिर्णय के निमित्त उन दोनों में जो विचार-विनिमय होता है वह रागद्वष विहीन होने के कारण तत्त्वनिर्णयेच्छु कथा या वीतराग कथारूप माना गया है ॥३३।। सूत्र-स्वाभिमतधर्मव्यवस्थापनार्थ स्वपरपक्षसाधनदूषणाभ्यां परपराजयेच्छुकथा विजिगीषु कथा।।३४|| संस्कृत टीका–स्वस्य अभिमतोऽभिप्रेतो यो धर्मः पक्षः आत्मादेः कथञ्चिन्नित्यत्वादिरूपस्तस्य व्यवस्थापनार्थ स्थिरीकरणार्थ स्वपक्षसाधनेन परपक्षदूषणेन च प्रतिवादिनं पराजेतुमिच्छुः पुरुषः परपराजयेन्शुः कथ्यते तस्य वादरूपा या कथा सा विजिगीषु कथा । परपक्षखण्डनेन स्वपक्षसंस्थापनेनैव च विजयलाभात्तेन क्रियमाणायाः कथाया विजिगीषु कथात्वसंभवात् ॥३४॥

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