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ग्यायरल : न्यायरत्नावली टीका : षष्ठम अध्याय, सूत्र ३३३
इच्छावाला गुरु आदि जन क्षायोपशमिक ज्ञानशाली भी होता है और क्षायिक ज्ञानशाली भी होता है इसी कारण उसके क्षायोपशमिक ज्ञानवान और क्षायिकज्ञानवान ऐसे दो भेद प्रकट कये गये हैं।
प्रश्न-क्षायोपशमिक शब्द का वाच्यार्थ क्या है ? यह हमें दृष्टान्त देकर समझाइए?
उत्तर-सुनो-कल्पना करो-किसी अमुक व्यक्ति के घर पर दस लस्कर चोरी करने के लिए अपने स्थान से एक साथ चले और २५ कदम पर आकर उनमें से ५ तस्कर दूसरी तरफ चले गये, जिस व्यक्ति के यहाँ पर उन्हें चोरी करनी थी वहाँ तक नहीं आये, सिर्फ ५ तस्कर ही उस व्यक्ति के घर तक आये । अब इनमें से ४ तस्कर बाहर बैठे रहे और १ तस्कर ने । उस व्यक्ति के घर में घुसकर चोरी करना प्रारम्भ कर दिया। यह तो दृष्टान्त है। अब इस दृष्टान्त से हम आपको यह समझाते हैं कि इसी प्रकार से ज्ञानाबरण कर्म में दो जाति के स्पर्द्धक होते हैं एक सर्वघातिस्पद्धक और दूसरे देशवातिस्पर्द्धक । इनमें से कुछ सर्वघातिस्पर्द्धकों का उदयाभावरूप क्षय और कुछ स्पर्द्धकों का सदवस्थारूप उपशम तथा देशधाति स्पर्द्धकों का उदय जब होता है तब ज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम होना कहा जाता है । इस ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशमवाला जो व्यक्ति होता है वह क्षायोपशमिक ज्ञानशाली कहा गया है । ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से आत्मा में मतिज्ञान, अ तज्ञान, अवधिज्ञान और मनपर्ययज्ञान ये चार झान तक उत्पन्न होते हैं । यदि दो ज्ञान हों तो मतिज्ञान और श्र तज्ञान होते हैं, तीन ज्ञान हों तो मतिज्ञान श्रु तज्ञान अवधिज्ञान या मतिज्ञान श्र तज्ञान और मनःपर्ययज्ञान होते हैं और यदि चारों जान हों तो मतिज्ञान व तज्ञान अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान होते हैं । पाँच ज्ञान एक साथ एक आत्मा में नहीं होते हैं । केवलज्ञान केवलज्ञानावरण कर्म के सर्वथा क्षय से होता है यह ज्ञान जिसके होता है वह क्षायिकज्ञाती कहा जाता है । शिष्यादिरूप परात्मा में तत्त्वनिर्णय होने की इच्छा बाला क्षायोपशमिक ज्ञानशाली भी होता है और क्षायिकज्ञानशाली भी होता है । इस कथन से यह हमें समझ में आ जाता है कि तत्त्वनिर्णयेच्छुकथा या वीतरागकथा के आरम्भकों के तीन भेद होते हैं-एक तो स्वात्मा में तत्त्वनिर्णय का अभिलाषी, 'दुसर पर आत्मा में तत्त्वनिर्णय की अभिलाषी क्षायोपशमिकशानशाली गुरु आदि और तीसरा पर आत्मा में तत्त्वनिर्णय का अभिलाषी क्षायिक ज्ञानशाली तथा विजिगीषु के आरम्भ का एक ही भेद होता है क्योंकि कोई भी विजिगीष अपने आपको जीतने का अभिलाषी नहीं होता है, वह तो दूसरे को ही जीतने का अभिलाषी होता है इसलिये जिस प्रकार तत्त्वनिर्णयेच्छु के स्वात्मतत्त्वनिर्णयेच्छु और परात्मतत्त्वनिर्णमेच्छु ऐसे दो भेद कहे गये हैं ऐसे ये दो भेद यहां संभवित नहीं होते हैं । परात्म विजिगीषु में परात्मतत्त्व निर्णीषु की तरह दो भेद इसलिए संभवित नहीं होते हैं कि जो क्षायिकज्ञानशाली केवली होता है वह वीतराग होने से परात्मविजिगीषु नहीं होता है अतः वहाँ पर पराल्मविजिगीषु क्षायोपशामिकशाली ऐसा एक ही भेद होता है । इसी तरह स्वात्मनिर्णयेच्छ में क्षायोपामिक ज्ञानशाली ऐसा ही एक भेद होता है वहाँ स्वात्मनिर्णयेच्छ क्षायिकज्ञानशाली केवली ऐसा भेद नहीं होता है क्योंकि वह तो क्षायिकज्ञानरूप कैवलज्ञान वाला होता है अतः नितिसकलतत्त्वज्ञानशाली होने से वह स्वात्मा में सकल पदार्थ के बोधवाला ही होता है फिर उसे सकलपदार्थ के निर्णय की स्वात्मा में इच्छा ही नहीं रहती है। इसलिये स्वात्मा में जो तत्त्वनिर्णयेच्छु होता है वह क्षायोपशमिकज्ञानशाली ही होता है, क्षायिकज्ञानशाली नहीं होता है ऐसा जानना चाहिये । हाँ, जो परात्मा में तत्त्व-निर्णयेच्न होता है वह क्षायिकशानशाली भी होता है और क्षायोपश मिकज्ञानशाली भी होता है । अतः ये दो भेद यहीं पर संभावित होते हैं । स्वात्मतत्वनिर्णयेच्छु में नहीं ॥ ३६ ॥