Book Title: Nyayaratna Sar
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: Ghasilalji Maharaj Sahitya Prakashan Samiti Indore

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Page 282
________________ न्यायरत्न : न्यायरत्नावली टीका : षष्ठम अध्याय, सूत्र २० नयाभासः । द्रव्यमुपसर्जनीकृत्य पर्याय चानुपसर्जनीकृत्य प्रबर्तमानो विचार ऋजुसूत्रनयः । ऋजुसूत्रनया. भासी बौद्धो यतस्स हि पर्याया नेवाङ्गी करोति न द्रव्यम् । हिन्दी व्याख्या-द्रव्य का अपलाप करने वाली विचारधारा ऋजुत्रनयाभास है । पर्याय स्वतन्त्र नहीं होती हैं वे द्रव्याश्रित ही होती हैं। परन्तु बौद्धसिद्धान्त उत्पाद व्ययात्मक पर्याय को ही वास्तविक मानता है क्योंकि उसके मतानुसार द्रव्य नाम का कोई पर्यायानुयायी पदार्थ नहीं माना गया है अतः द्रव्य के प्रति माध्यस्थ्यभाव न रखकर केवल वर्तमान पर्याय को ही प्रधान रूप से मानने वाला बौद्धसिद्धान्त ऋजुसूत्रनयाभास कहा गया है । ऋजुसूत्रनय द्रव्य के प्रति माध्यस्थ्यभाव रखकर वर्तमान पर्याय को विषय करता है। इसलिए यह सम्यक् एकान्त माना गया है और ऋजुसूत्राभास मिथ्र्यकान्त कहा गया है क्योंकि यह सर्वथा द्रव्य का निषेध करता है ॥१६।।। सूत्र-कालादिभेदेनवाच्यार्थभदज्ञोऽभिप्रायः शब्दनयः ।।२०।। संस्कृत टीका-आदिनाकारकलिङ्गसंख्यापुरुषोपसर्गा ग्राह्याः । एवं च कालादिभेदेन वर्णपदवाक्यात्मकस्थ शब्दस्य वाच्यार्थभेदाभ्युपगन्ताऽर्थभेदं स्वीकारात्मकोऽभिप्रायः शब्दनय इति । यथा'सुमेरुपर्वतो बभूव अस्ति भरि यति' इत्या गदा यात विरगर्तमान कालभेदेन द्रव्यरूपतया भिन्नस्यापि सुमेरुपर्वतस्य भिन्नत्वं प्रतिपादयति एवं घटं प्रियते' इत्यादी प्रथमाद्वितीयाकारकभेदेनाभिन्नस्यापि घटपदार्थस्यभिन्नत्वं मन्यते 'तट: तटी तटम्' इत्यादौ पुंस्त्वस्त्रीत्वनपुंसकत्वरूपलिङ्गत्रयभेदेनाभिन्नस्यापि तटरूपार्थस्यभिन्नत्वं जानाति 'दाराः कलत्रम्' इत्यादौ एकत्वबहुत्वादिसंख्याभेदेन कस्यापि स्त्रीरूपार्थस्य भिन्नत्वं प्रतिपादयति त्वं भवान्' इत्यादौ उत्तममध्यमपुरुष भेदेनाभिन्नस्यापि त्वं पदार्थस्य भिन्नत्वं स्वीकरोति शब्दन्यः । एवमेव 'प्रतिष्ठते उपतिष्ठते' इत्यादी उपसर्गभेदेन भिन्नार्थत्वं स्थाधातोः प्रतिपादयति ।।२०।। ___ अर्थ-काल आदि के भेद से शब्द के वाच्यार्थ को भिन्न-भिन्न मानने वाला अभिप्रायविशेष शब्दनय है ॥२०॥ हिन्दी व्याख्या-यद्यपि नय का स्वरूप सामान्यतः पहले कहा जा चुका है और उसमें शब्दनय का भी स्वरूप प्रकट किया गया है परन्तु यहाँ उसी स्वरूप को विशेष रूप से समझाने के निमित्त सूत्रकार ने सूत्र की रचना की है । इसमें काल कारक लिङ्ग संख्या पुरुष और उपसर्ग के भेद से शब्द के वाच्यार्थ में भिन्नता कैसे आती है यह स्पष्ट करके समझाया गया है। वर्णरूप शब्द पदरूप शब्द और बाक्यरूप शब्द इस प्रकार से शब्द को तीन विभागों में विभक्त किया गया है । इस पर विवेचन पीछे हो चुका है। काल के भेद को लेकर शब्दनय अभिन्न अर्थ में भी भिन्नता का कथन इस प्रकार से करता है-जैसे--'सुमेरुपर्वत' पहले हुआ, अब भी है और आगे भी रहेगा' इस वाक्य में 'भूत क्रिया वाले सुमेरुपर्वत में वर्तमान क्रिया वाले सुमेरुपर्वत में भविष्यत् क्रिया वाले सुमेरुपर्वत में क्रिया के भेद को लेकर काल का भेद है। अतः उसके भेद को लेकर सुमेरु में भी विरूपता आती है । यद्यपि विचार किया जावे तो इन तीनों वाक्यों में एक सुमेरुपर्वत का ही त्रिकाल सम्बन्धी अस्तित्व बताया गया है पर भूतकालिक पर्याय, वर्तमान कालिकपर्याय और भविष्यत्कालिक पर्याय परस्पर भिन्न-भिन्न हैं अतः पर्यायों में भिन्नता होने के कारण सुमेरुपर्वत में भी भिन्नता है । जब कोई ऐसा प्रतिपादन करता है कि वह घट को बनाता है, तथाउसके द्वारा घट बनाया जाता है। इस प्रकार के प्रयोग में द्वितीया कारक और प्रथमा कारक बाला होने से शब्दनय घट शब्द के अर्थ में भिन्नता का कथन करता है। यह दृष्टान्त कारक की भिन्नता

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