Book Title: Nyayaratna Sar
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: Ghasilalji Maharaj Sahitya Prakashan Samiti Indore

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Page 281
________________ ग्यायरत्न : न्यायरत्नावली टीका : सष्ठम अध्याय, सूत्र १५-१६ क्रियते' में घट में प्रथमाविभक्ति है अतः कारक की भिन्नता से घट में भिन्नता आती है इसी तरह लिङ्गादिक के भेद से भी शब्द के वाच्यार्थ में भिन्नता यह नय स्वीकार करता है ऐसा जान लेना चाहिये । इसी प्रकार 'तटः, तटी, तटम्याद एक हो अर्थ के वाचक हैं । परन्तु शब्दनय के अभिप्रायानुसार पुल्लिग, स्त्रीलिङ्ग और नपुंसकलिङ्ग वाले होने के कारण इनका वाच्यार्थ भिन्न-भिन्न है । "इन्द्रः शक्रः पुरन्दरः' ये तीनों शब्द समानलिङ्ग वाले हैं अतः इनका वाच्यार्थ इसकी दृष्टि में एक है इसी तरह 'जलमापो' यह संख्याध्य भिवार है जल एक वचन एवं 'आपः' बहुवचन है अतः इन शब्दों का अर्थ भी भिन्न-भिन्न है इसी तरह 'उपतिष्ठति संतिष्ठते' यहाँ उपसर्ग को भिन्नता है इस से स्था धातु का अर्थ भिन्न-भिन्न है ऐसा मानता है इस तरह से शब्दनय अपनी मान्यता को उपस्थित करता है। समभिरूदनय का अभिप्राय ऐसा है कि शब्दों के लिङ्गादिकों की भिन्नता से भले ही भिन्न-भिन्न अर्थ हों परन्तु जिन शब्दों का एक जैसा भी लिङ्गादि है उन शब्दों के भो वाच्यार्थ जुदे-जुदे हैं। वे एकार्थक नहीं हो सकते। इस तरह यह नय व्युत्पत्ति के भेद से शब्दों के अर्थ का समर्थक होता है। इन्द्र शब्द का वाच्यार्थ इन्द्र तभी हो सकता है कि जब वह परमैश्वयं का भोक्ता है । पुरों का दारण करने से वह पुरन्दर और शक्तिशाली होने से ही वह शक्र कहा गया है। इस तरह यह समभिरूढनय इन्द्र शक पुरन्दर आदि पर्यायवाची शब्दों में भी व्युत्पत्ति के भेद से अर्थ की भिन्नता का प्रतिपादन करता है। एवंभूतनय का अभिप्राय ऐसा है कि जिस समय पदार्थों में जो किया होती हो उस समय उस क्रिया के अनुरूप पाब्दों से अर्थ का प्रतिपादन करना जैसे परमश्वर्य का अनुभवन करने रूप क्रिया से युक्त होने पर ही इन्द्र को इन्द्र कहना आदि आदि ॥१७॥ सूत्र-वर्तमान समयमात्र पर्यायग्राहीनय ऋजुसूत्रः ॥१८॥ संस्कृत टीका–पर्यायाथिकनय भेदत्वेनोक्तस्य ऋजुसूत्रनयस्य स्वरूपं निरूपयितुमाह-वर्तमानसमयमात्रेत्यादि-चतुर्ष पर्यायाधिकनयेषु मध्येयोऽभिप्रायविशेषो वर्तमानकालस्थायि पर्यायानेव स्वीकरोति पूर्वापराश्च पर्यायानत्येति विनष्टानुत्पन्नत्वेन, पर्यायाश्चयभुतं द्रव्यमपि गौणत्वेन नाभिमन्यते एवं विधोऽभिप्रायविशेष ऋजुसूत्रनय इत्युच्यते । अत्रोदाहरणं पूर्वमेव निगदितम् ।।१८।। अर्थ-वर्तमान समयमात्र में जो पर्याय हो रही हो उसी पर्याय को ग्रहण करने वाला जो नय है वह ऋजुसूत्रनय है यह ऋजुसूत्रनय जिस समय वर्तमानक्षणालिङ्गित पर्याय को एक समयवर्ती पर्याय को-अपना विषय बनाता है उस समय पर्याय का आश्रयभूत द्रव्य उस पर्याय के साथ ही रहता है परन्तु हीं करता है। क्योंकि इसका लक्ष्य सिर्फ अपने ही विषय को ग्रहण करने की ओर रहता है अतः वर्तमान भी द्रव्य को ग्रहण न करने से वह उसका अपलापकर्ता नहीं है किन्त माध्यस्थ्यभाव रखता है । भूतपर्याय को वह विनष्ट हो जाने के कारण और होने वाली पर्याय को अनुत्पन्न होने के कारण वह अपना ज्ञेय नहीं बनाता है इस नय के विषय को हमने पहले ही दृष्टान्त द्वारा स्पष्ट कर दिया है ॥१८॥ सूत्र-द्रव्यापलापी तु तदाभासः ||१६॥ संस्कृत टीका-योऽभिप्रायविशेषः पर्यायानुयायि द्रव्यं नास्त्येवेत्येवं प्रकारेण वर्तमानमपि द्रव्यं निषेधति न तत्पति गजनिमीलिका दधाति केवलं पर्यायानेव विषयीकरोतिसोऽभिप्रायविशेष एव ऋजुसूत्र

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