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न्यायरत्न :न्यायरताबली टीका: पप्ठम अध्याय, सून १७
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गणित किया गया है । इस सिद्धान्त के पक्षपातियों की ऐसी मान्यता है कि पृथिवी अप तेज और वायु ये तत्त्वचतुष्टय ही वास्तविक है क्योंकि इनकी वास्तविकता का प्रख्यापक प्रत्यक्षप्रमाण है, द्रव्य पर्याय प्रत्यक्षगम्य नहीं हैं ये तो अनुमान प्रमाणगम्य कहे गये हैं, अतः अनुमाण प्रमाण में अवास्तविकता होने के कारण उसके द्वारा स्थापित द्रव्यपर्याय विभाग सब ही ऐसा है कि जैसा वेश्या का बिलास | बह जैसा केबल पर मनोरंजक ही होता है पारमार्थिक नहीं होता है इसी प्रकार यह केवल मनोरंजक ही है । लोक यात्रानुयायी नहीं है क्योंकि प्रत्यक्षप्रमाण से इसकी प्रतीति नहीं होती है। जिसकी प्रतीति प्रत्यक्षप्रमाण से होती है वहीं घटादिक वस्तु वास्तविक है इसके सिवाय अनुमानगम्य वस्तु वास्तविक नहीं है। जीव भी स्वतन्त्ररूप से शरीर के सिवाय प्रतीत नहीं होता इसलिये वह भी शरीर से भिन्न कोई परलोकानुयायी स्वतन्त्र सत्ताबाला पदार्थ नहीं है शरीर ही जीवरूप है । परलोक पुण्य-पाप ये सब कुछ नहीं है। कोरी कल्पना से ही कल्पित ये किये गये हैं इनके अस्तित्व का व्यापक कोई प्रमाण नहीं है। इस प्रकार की मान्यता बाला चार्वाकराद्धान्त सिद्धान्त व्यवहारनयाभास है ।।१६।।
सूत्र-पर्यायाथिकमयमचतुर्विधः ऋजुसुत्रशब्दसमभिरुढ़वभूतभेदात् ।। १७ ।
संस्कृत टीका-त्रिविधं द्रव्याथिकनयस्वरूपं प्रतिपाद्य पर्यायाथिकनयस्वरूप निरूप्यते ऋजुसूत्रशब्दममभिरूकै बभूतभेदात् स न यश्चतुर्विधो भवति । पर्येति उत्पत्ति विध्वंसौ प्राप्नोतीति पर्यायः स चामावर्थश्चेति पर्यायार्थः तमधिकृस्य प्रबर्तमानो नयः पर्याधाथिकनयः वस्तु मात्रस्थैवोत्पत्ति विनाशयोः खलु पर्यायाथिकनय विषयत्वात् सोऽयं नयः ऋजुसूत्रनयादि भेदात् चतुर्धा तत्र ऋजु वर्तमानक्षणस्थायि पर्यायमात्र प्राधान्यतः सूत्रयन्नभिप्रायदिप जुमूत्र' रतन नरनार दत्तु एवमलोचरः प्रतिपत्त रभिप्रायविशेषो नय इत्युक्तत्वेन ऋजुसूत्रनयस्य पर्यायाथिकनय विशेषत्वात् प्रधानतया वर्तमानकालमात्रपर्याय ग्राहकतया तत्रद्रव्यस्य सत्त्वेऽपि गौणत्वात् लमर्जुसूत्रनयो गृह णाति अपितु केवलं पर्यायानेव क्षणिकान प्रधानतया प्रतिपादयतीतिभावः यथैदानी सुखपर्यायो वर्तते' इति वाक्यं वर्तमानलक्षणस्थायि सुखरूपं पर्यायं मुख्यतया गृह णाति तदधिकरणरूपमात्मद्रव्यं तु विद्यमानमपि गौणत्वेन न गृह णाति एवं कालकारक लिङ्गसंख्या पुरुषोपसर्गादि भेदेनाभेदं योऽभिप्रायविशेषो वदति स शब्दनय इत्युच्यते यथावभूव अस्ति भविष्यति व सुमेरुः इति वाक्यमेकस्यैव सुमेरोः पर्वतस्य भूतभविष्यद्वर्तमानकालभेदादिभन्नत्वं प्रतिपादयति किन्तु द्रध्यत्वेन सुमेरोरभिन्नत्वमौदासीन्येन नावलम्ब ते एवं घटं करोति तेन घटः क्रियते इत्यादि वावयं कत कर्मरूपकारक में देनाभिन्नस्यापि घटस्य प्रधानतया भिन्नत्वं प्रतिपादयति एवमन्यदपि बोध्यम् । इन्द्रपुरन्दरादिशब्देषु ब्युपत्तिभेदेनाभिन्नस्याप्यर्थस्य भिन्नत्वं योऽभिप्राय विशेषः प्रतिपद्यते स समभिरुवनय इत्युच्यते यथा-इन्दनादिन्द्रः पुरणात्पुरन्दरः शकनाच्छक इत्येवं विभिन्नव्युत्पत्त्या अभिन्नमपीन्द्ररूपमर्थ पर्यायभेदेन भिन्नार्थत्वेन प्रतिपद्यते समभिरूढ़नय माब्दनयस्तु इन्द्रादिपर्यायभेदेऽप्यर्थाभेदमेव स्वीकरोति एवमिन्द्रादिशब्दानां स्वप्रवृत्तिनिमित्तीभूतेन्दनादिक्रियाऽऽविष्टमेवाध योऽभिप्रायविशेष प्रतिपद्यते तत्क्रियानाविष्टमर्थं तूपपेक्षते स एवं भृतनय उच्यते एतेनैवं भूतनयः खलु इन्दमादिक्रियापरिणतमिन्द्ररूपार्थमिन्दन क्रियाकाले एवेन्द्रादि शब्दवाच्यतया स्वीकरोति समभिरूढनयस्तु विद्यमानेऽविद्यमाने वेन्दनादिक्रिया रूपे प्रवृत्तिनिमिने इन्द्रादिशब्दवाच्यत्वं स्वीकरोति ॥ १७ ॥
अर्थ-पर्यायाथिकनय चार प्रकार का है-ऋजुमूत्रनय, शब्दनय, समभिरूढ़नय और एवंभूतनय ।। १७ ॥
हिन्दी व्याख्या-तीन प्रकार का द्रव्यार्थिवनय प्ररूपित करके अब सूत्रकार इस सूत्र द्वारा चार प्रकार के पर्यायार्थिक नय के स्वरूप की प्ररूपणा कर रहे हैं-यह पर्यायाथिकनय ऋजसूत्रनय आदि के