Book Title: Nyayaratna Sar
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: Ghasilalji Maharaj Sahitya Prakashan Samiti Indore

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Page 283
________________ न्यायरत्न : न्यायरत्नावली टीका: षष्टम अध्याय सूत्र २१-२२ १८३ से अर्थ की भिन्नता बतलाने के लिये कहा गया है उसी प्रकार जब कोई 'तटः तटी तटम्' इस प्रकार के तट के पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग करता है तो शब्दनय कहता है कि जहाँ पर लिङ्ग की भिन्नता होती है, वहाँ पर अर्थ में भी भिन्नता होती है। तट शब्द पुल्लिङ्ग है, तटी शब्द स्त्रीलिङ्ग है और तटम यह नपुंसकलिङ्ग है। इन लिङ्गों में जब भेद है तो इन लिङ्गों वाले शब्दों के अर्थ में भी भेद है । इस तरह यह शब्दtय अभिन्नता अर्थ वाले भी तदादि शब्दों के अर्थ में लिङ्ग के भेद से अर्थ भेद का कथन करता है । इसी तरह जब कोई 'दाराः कलयम्' ऐसा शब्द प्रयोग स्त्री शब्द के पर्यायवाची के रूप में करता है तब शब्दमय करता है कि दारा शब्द बहुवचनान्त है और कलत्र शब्द एक वचनान्त है अतः इनका एक स्त्री रूप अर्थ नहीं हो सकता है क्योंकि एकवचनान्त और बहुवचनान्त की अपेक्षा इनके अर्थ में भिन्नता है । इसी प्रकार जब कोई बातचीत के प्रसङ्ग में किसी एक ही व्यक्ति के प्रति तुम और आप शब्दों का प्रयोग करता है तो यह नय तुम शब्द द्वारा कहे गये व्यक्ति को और आप शब्द द्वारा कहे गये व्यक्ति को पुरुष भेद होने के कारण भिन्न-भिन्न मानता है । यह पुरुषभेद की अपेक्षा अर्थभेद है। इसी प्रकार से यह नय 'प्रतिष्ठिते, उपतिष्ठते' इत्यादि प्रयोग में उपसर्ग की भिन्नता के कारण स्था धातु के अर्थ में भी भिन्नता का कथन करता है ॥२०॥ सूत्र - कालादिभेदेन शब्दस्य भिन्नार्थत्वमेव मन्वानोऽभिप्रायविशेषस्तदाभासः ॥ २१ ॥ संस्कृत टीका - शब्द नवस्तु कालादिभेदेन शब्दस्य भिन्नार्थत्वं प्रतिपादयन्नपि द्रव्यापेक्षया तत्र विद्यमानमप्यभिन्नार्थत्वं न निषेधति तदाभासस्तु स्वाभिमतमेव दृढीकुर्वस्तत्र सद्भूतमपि अभिन्नत्वं प्रतिषेधति ॥ २१॥ अर्थ – काल, कारक, लिंग, संख्या, पुरुष और उपसर्ग के भेद से शब्द के वाच्यार्थ में भिन्नता ही है, किसी भी अपेक्षा से उसमें अभिन्नता नहीं है ऐसा मानने वाला अभिप्रायविशेष शब्दनयाभास है । हिन्दी व्याख्या यह तो पहले कह ही दिया गया है कि काल आदि के भेद को लेकर शब्दनय शब्द के वाच्यार्थ में भिन्नता का कथन करता है । पर भिन्नता का वाच्यार्थ में कथन करता हुआ भी बह द्रव्य की अपेक्षा उसमें रही हुई अभिन्नता का तिरस्कार नहीं करता है परन्तु शब्द-नयाभास ऐसा नहीं करता वह तो शब्द के वाच्यार्थ में कालादिक को भिन्नता को लेकर सर्वथा भिन्नता का ही प्रतिपादन करता है और द्रव्यदृष्टि से वर्तमान अभिन्नता का प्रतिषेध करता है ॥ २१ ॥ सूत्र - पर्यायवाचिशब्दानां भिन्नार्थत्वमभिमन्यमानोऽभिप्रायः समभिरूढः ।। २२ ।। संस्कृत टीका - पर्यायवाचिशब्दानां भिन्नार्थता व्युत्पत्तिभेदामन्तरेण नोपपद्यतेऽतो व्युत्पत्तिभेदो गतार्थत्वान्नोक्तः — एवं च व्युत्पत्तिभेदेन पर्यायशब्दानामिन्द्रशऋपुरन्दरादिशब्दानामर्थभेदप्रतिपादकोऽभिप्रायः समभिनय इत्युच्यते । शब्दनयाभिप्रायेणेन्द्रशक्रपुरन्दराः शब्दाः समानार्थकाः सन्तोऽपि समभिरूठनाभिप्रायेणेते भिन्नाभिन्नार्थवाचकाः भवन्ति घोटकट कट शब्दत्र भिन्नाभिन्नशब्दत्वात् यद्यपीन्द्रशक्रादयः शब्दा न केवल पर्यायरूपार्थस्यैव वाचका अपितु द्रव्यविशिष्टपर्यायवाचकाः सन्तीति वस्तुस्थिति वर्तते तथाप्ययं नयस्तेषां द्रव्यवाचकत्वं गौणं विधाय पर्यायवाचकत्व प्रधानतया तत्र भिन्नार्थत्वमेव समर्थयते । नास्य कार्थवाचक एकः शब्दोषां दानां कोयते ॥ २२ ॥ अर्थ- पर्यायवाचक शब्दों का अर्थ भिन्न-भिन्न होता है ऐसा स्वीकार करने रूप जो अभिप्राय हैं वह समभिरूढनय है ॥ २२ ॥

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