Book Title: Nyayaratna Sar
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: Ghasilalji Maharaj Sahitya Prakashan Samiti Indore

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Page 246
________________ ग्यावरन : न्यायरत्नावलो टीका : पंचम अध्याय, सूत्र १५ है वही प्रमाणस्वरूपाभास है । मौलिक रूप से जो प्रमाण तो नहीं है पर प्रमाण के जैसा प्रतीति कोटि में आ रहा हो वही प्रमाणाभास वाहलाता है ।। जैसे-एमीटेशन मोती- एमीटेंशन मोती वास्तविक मोती नहीं होता-नकली ही मोती होता है, पर असली मोती के जैसा प्रतीत होता है । इसी प्रकार प्रमाणस्वरूप जो नहीं हो किन्तु नकली ही प्रमाण हो पर वह असली प्रमाण के जैसा प्रतीत हो तो वही प्रमाणाभास है जैसे सन्निकर्षादि । सन्निकर्षादि प्रमाण अचेतन हैं अतः वे स्वव्यवसायात्मक नहीं हैं, पर ये प्रमाण के जैसे ही प्रतीतिकोटि में आते है। प्रमाण के भेद प्रत्यक्ष प्रमाण और परोक्ष प्रमाण ऐसे दो ही माने गये हैं। पर इन भेदों को न मानकर केवल प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानने वाली एवं केवल प्रत्यक्ष अनुमान को ही प्रमाण मानने वाली आदि रूप जो मान्यताएँ हैं वे सब प्रमाणसंख्याभास रूप हैं, प्रमाण मात्र का विषय विशेष और सामान्य धर्मवाला पदार्थ ही माना गया है केवल विशेषयुक्त या केवल सामान्य युक्त कोई पदार्थ नहीं माना गया है, पर ऐसा कहना कि केवल विशेष को ही प्रमाण विषय करता है या केवल सामान्य को ही प्रमाण विषय करता है या परस्पर निरपेक्ष सामान्य विशेप को ही प्रमाण विषय करता है यह सब प्रमाण विषयाभास है। प्रमाण का फल प्रमाण से कथञ्चित् भिन्न और कथञ्चित् अभिन्न माना गया है परन्तु ऐसा न मान कर ऐसा मानना कि प्रमाण का फल प्रमाण से सर्वथा भिन्न ही है, या सर्वथा अभिन्न ही है । इन प्रमाणाभासों पर विवेचन स्वयं सूत्रकार आगे करने वाले हैं, अतः यहाँ केवल मामान्य रूप से प्रमाणाभास और उसके भेदों काही दिग्दर्शन कराया गया है ॥१४॥ सूत्र-प्रमाणस्वरूपाभासा अज्ञानात्मक-बनात्मप्रकाशक-स्व-मात्रावभासक-निविकल्प समारोपाः ॥१५॥ संस्कृत टोका-तत्र चतुर्विधस्य प्रमाणाभासस्याद्यभेदं निरूपयितुं सूत्रकारेणेदं सूत्रमभिहितम् । एवञ्च यत् प्रमाणस्य स्वरूपमिवावभासते-प्रतीयते-तत्प्रमाणस्वरूपाभासम् । तत् अज्ञानात्मकादिभेदेन पञ्चविधमस्ति । तत्र नैयायिकादिभिः परिकल्पितं घटपटादि विषयः चक्षरादि संयोगादिरूपं सन्निकर्षादिक जड़तया ज्ञानात्मकत्वात् न ज्ञान विशेष प्रमाण स्वरूपम् अपितु प्रमाण स्वरूपबदाभासमानत्वादज्ञानात्मक प्रमाणस्वरूपाभासरूपं बोध्यम् । एतेन स्वपर प्रकाशकतया चेतनधर्मस्य ज्ञानस्यैव प्रमाणता युक्तेति सूचितम् । एवमेव स्वमात्रावभासकं झानम् अनुव्यवसाय ग्राह्य ज्ञानं वा प्रमाणस्वरूपं न भवति स्व पर व्यवसायात्मकत्वाऽभावात् प्रमाणस्वरूपाभासरूपमेव, तथैव परानवभासकं क्षणिक विज्ञानमपि स्वमानावभासकत्वेन, दर्शनात्मकमपि निर्विकल्पक ज्ञानं वस्त सामान्य स्वरूपमात्र प्रकाशकत्वेन वस्तविशेषा ग्राहकतया प्रमाणस्वरूपाभासात्मक विज्ञेयम् । एवमेव संशयरूपं विपर्ययरूपम् अनध्यवसायरूपं च ज्ञानमपि समारोपरूपत्वात् प्रमाण स्वरूप न संभवति समारोप विरुद्धस्यैव प्रमाणस्वरूपाभ्युपगमात् ॥ १५ ।। हिन्दी व्याख्या-१४३ सूत्र द्वारा जो प्रमाणाभास चार प्रकार का प्रकट किया गया है उसी प्रमाणाभास का पहला भेद जो पमाणस्वरूपाभास है उसके विषय में ही इस सूत्र द्वारा स्पष्टीकरण किया गया है। इसमें यह समझाया गया है कि प्रमाण का यथार्थ लक्षण स्वरूप-स्व और पर को समारोप का तिरस्कार करते हुए जानने से ही है । यदि कोई ज्ञान को केवल स्व का ही जानने वाला, केवल पर का ही जानने वाला, केवल स्व को नहीं जानने वाला, केवल पर को नहीं जानने वाला, मानता है और जो कोई ऐसा मानता है कि ज्ञान का प्रत्यक्षकरण, ज्ञान से ही होता है, ज्ञान अपने आपको नहीं जानता है सो इत्यादि रूप से प्रमाण ज्ञान के स्वरूप में जितनी भी भिन्न-भिन्न प्रकार की मान्यताएं हैं वे सब प्रमाणस्वरूपाभास ही हैं। नैयायिक आदिकों ने प्रमाणभूत ज्ञान का स्वरूप इन्द्रिय और पदार्थों के

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