Book Title: Nyayaratna Sar
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: Ghasilalji Maharaj Sahitya Prakashan Samiti Indore

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Page 251
________________ न्यायरत्न : न्यायरत्नावली टीका : पंचम अध्याय, मूत्र २३ 'वह्निरनुष्ण' इत्यत्र वह्नौ अनुष्णत्वं स्पार्शन प्रत्यक्षेण बाधितं वर्तते अतो वह्निनः पो वाधित साध्यरूप धर्म विशेषण विशिष्टः, तस्मादयं पक्षाभासः एवमेव यदि कश्चिज्जैनधर्मानुयायी 'शब्दो नित्योऽनित्योवैव' बदति तदा तदपेक्षया साध्यस्यानभीप्सितत्वात्पक्षोऽनभीत्सित साध्यधर्म विशेषणो जायते । अमुना प्रकारेण त्रिविधः पक्षाभासो भवति ॥२२।। ___ अर्थ-प्रतीत साध्य धर्म विशेषण वाला, बाधितसाध्यधर्म विशेषण वाला और अनभीप्सित साध्यधर्म विशेषणवाला पक्ष पक्षाभास कहा गया है। अतः इस प्रकार से पक्षाभास में त्रिविधता कही गई है। हिन्दो व्याख्या—यह तो पहले ही स्पष्ट किया जा चुका है कि इष्ट, अबाधित और असिद्ध जो होता है वही साध्यकोटि में रखा जाता है, बादी को जो अभीप्सित है-जिसे वह सिद्ध करना चाहता है उसे ही तो वह साध्य बनाता है, अनभीप्सित अनिष्ट को नहीं, यदि यह इष्ट साध्य प्रत्यक्षादि किसी भी प्रमाण से बाधित होता है तो इष्ट होते हुए भी वह साध्य की कोटि में नहीं रखा जा सकता है। इसी तरह बह इष्ट और अबाधित होते हुए भी यदि प्रसिद्ध है-प्रतीत है-तो उसे साध्यकोटि में रखने की जरूरत नहीं है, क्योंकि सिद्ध को साध्य करना ऐसा है जैसा कि पीसे हए को पीसना, जो पक्ष इस प्रकार के विशेषणों वाले साध्य से सम्पन्न होता है वही सच्चा पक्ष कहलाता है और जो ऐसा नहीं होता वह पक्षाभास-सदोष पक्ष-कहलाता है। इतना निष्कर्ष हृदय में अवधारित करके ही सूत्रकार ने इस सत्र की रचना की है-इसके द्वारा यह समझाया गया है कि पक्ष विशेष्य होता है और साध्य उसका विशेषण होता है। जब कोई जैन मान्यता बालों को समक्ष ऐसा कहता है कि-"अस्ति जीवः" जीव अस्तित्व धर्मविशिष्ट है-यहां पक्ष जीव है और "है" यह साध्य है, तो उसका ऐसा कथन जनों को प्रतीत होने के कारण प्रतीत साधर्म विशेषणवाला पक्षाभास बन जाता है। हां, यदि यहाँ पर वह “एव" ही शब्द का प्रयोग कर ऐसा कहता कि जीव अस्तित्व धर्म विशिष्ट ही है। ऐसी एकान्त मान्यता जनों की नहीं हैअतः वह अप्रतीत होने के कारण साध्य कोटि में आ जाता। इसी प्रकार जब कोई ऐसा कहता हैं कि "वह्निरनुष्णः" अग्नि अनुष्ण है तो यहाँ पर अग्नि पक्ष है और अनुष्ण साध्य है । यह अनुष्णत्वरूप साध्य अग्नि में स्पर्शनेन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष से बाधित है क्योंकि अग्नि उष्ण है । अतः स्पर्शनेन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष से इस अग्निरूप पक्ष का साध्य बाधित हो जाने के कारण यह अग्निरूप पक्ष बाधित साध्यधर्म विशेषण वाला पक्षाभास हो जाता है । इसी प्रकार यदि कोई जन धर्मानुयायी ऐसा कहता है कि "शब्द नित्य ही है या अनित्य ही है तो उसका यह कथन अन भीप्सित साध्य धर्म विशेषण वाला पक्षाभास की कोटि में आ जाता है। क्योंकि जैन मान्यता प्रत्येक पदार्थ को अनेकधर्मात्मक मानती है । एकान्त रूप से वह न किसी को नित्य मानती है और न किसी को अनित्य मानती है । तात्पर्य इस समस्त कथन का यही है कि प्रसिद्ध साध्यवाला, बाधित साध्यवाला और अनिष्ट साध्यवाला पक्ष पक्षाभास हो जाता है ॥२२॥ सूत्र-बाधितसाध्यधर्मविशेषण पक्षाभासः साध्यस्य प्रत्यक्षादिभिनिराकरणादनेकविधः ।। २३ ॥ संस्कृत टीका-पक्षाभासानां त्रैविध्यमुक्त्वा तदन्तर्गतद्वितीय पक्षाभासस्य प्रथम तृतीय पक्षाभामवन्नकत्वं किन्तु अनेकत्वमेवेति प्रतिपादनार्थमिदं सूत्रं सूत्रकारेण प्रोक्तम् । एवं च प्रत्यक्षाऽनुमानागम लोक स्ववचन निराकृत साध्यधर्मविशेषणभेद्वितीयपक्षाभासोऽनेकविधो जायते । तथाहि-प्रत्यक्ष निराकृत साध्य धर्म विशेषणो यथा "शब्दो पौद्गलिकः" अत्र शब्दे पौद्गलिकत्वं थबणप्रत्यक्षेण बाधित्तम् । अतोऽयं शब्दरूपः पक्षः प्रत्यक्ष निराकृत साध्यधर्म विशेषण युक्तत्वात् 'पक्षाभासतो धारयति । नुमाअननिराकृत साध्यधर्म

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