Book Title: Nyayaratna Sar
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: Ghasilalji Maharaj Sahitya Prakashan Samiti Indore

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Page 264
________________ न्यायरल : न्यायरत्नावली टीका : पंचम अध्याय, सूत्र ३६-३७ है कि-कपिल असर्वश या अनाप्त है क्योंकि वह अक्षणिक एकान्तवादी है.--एकान्ततः नित्यवादी है जो सर्वज्ञ या आप्त होता है वह क्षणिकैकान्तवादो होता है--एकान्ततः क्षणिकवादी होता है जैसा कि सुगत । यहाँ पर असर्वज्ञ या अनाप्त ये साध्य हैं और अक्षणिकैकान्तवादी यह हेतु है । इनका व्यतिरेक सर्वज्ञ या आप्त और क्षणिकैकान्तवादी है । इसमें दृष्टान्त के रूप में वैधयं उदाहरण के स्थान में सुगत को उपस्थित किया गया है। पर यह संदिग्धसाध्य व्यतिरेक वाला वैधयं दृष्टान्ताभास है क्योंकि सुगत में असर्वज्ञता में या जनाता के व्यतिरेक का ...भाव का-संदेह है । इसी प्रकार जब कोई ऐसा कहता है कि यह पुरुष अश्रद्धय वचनवाला है क्योंकि इसमें रागद्वेष आदि हैं-जो ऐसा नहीं होता है-थद्ध य वचनवाला होता है-बह ऐसा भी नहीं होता है-रागद्वेष आदिवाला नहीं होता है जैसा कि शद्धोदन का पुत्र बुद्ध । यहाँ पर अश्रद्धय वचन का व्यतिरेक श्रद्धवचन और रागद्वषादिमत्व का व्यतिरेक वोतराग-दुषवाला प्रकट किया गया है । इसमें वैधर्म्यदृष्टान्त के स्थान पर बुद्ध को रखा गया है । सो यह वैधयं दृष्टान्ताभास रूप है क्योंकि बुद्ध में वीतरागद्वेषवत्ता संदिग्ध है. इस कारण यह संदिग्ध साधन व्यतिरेक बाला वैधर्म्य दृष्टान्ताभास है। इसी प्रकार जब कोई इस प्रकार से कहता है 'कपिल वीतराग नहीं है क्योंकि उसने दया करके कृपापात्रों को भी अपने मांस का खण्ड तक नहीं दिया जो वीतराग होता है वह दयालु होता हुआ कृपापात्रों को अपने मांस का खण्ड प्रदान करता है जैसा कि तपनबन्धु किसी मुनि विशेष ने किया है । यहाँ पर साध्य वीतरागभाव है और साधन दया से प्रेरित होकर कृपापात्रों के लिए अपने मास का खण्ड नहीं देना है। इन दोनों साध्य और साधन काव्यातरक वीतराग आर दया होकार कृपापात्रों को स्वमांस खण्ड का प्रदान करता है। इस व्यतिरेक में दृष्टान्त रूप से तपनबन्धु मुनि विशेष को रखा गया है । सो इस व्यतिरेक दृष्टान्त में वीतरागत्र रूप साध्य का और परम दया से प्रेरित होकर कृपापात्रों के लिए स्वमांस खण्ड का प्रदान करना रूप साधन ये दोनों ही संदिग्ध है अतः यह संदिग्ध साध्य साधन व्यतिरेक वाला दृष्टान्ताभास है। इसी प्रकार जब कोई ऐसा कहता है-यह पुरुष वीतराग नहीं है क्योंकि यह वक्ता है जो बीत राग होता है वह वक्ता नहीं होता है जैसा कि प्रस्तर खण्ड । यहाँ प्रस्तरखण्ड में साध्य व्यतिरेक रूप वीतरागत्व का और साधन व्यतिरेक रूप वक्तृत्वाभाव (अबक्तृत्व) का यद्यपि सद्भाव है परन्तु फिर भी ऐसी व्यतिरेक व्याप्ति नहीं बनती है कि जहाँ-जहाँ वीतरागता होती है वहाँ-वहाँ वक्तृत्वाभाव होता है अतः यह अव्यतिरेक नाम का दृष्टान्ताभास है । इसी तरह जब कोई ऐसा कहता है-शब्द अनित्य है क्योंकि वह कुतक होता है जैसा कि गमन । यहाँ पर गगन यह व्यतिरेक दृष्टान्त के स्थान पर प्रयुक्त हुआ है । इसमें जो अनित्य नहीं होता है वह कतक भी नहीं होता है ऐसी व्यतिरेक व्याप्ति यद्यपि मौजूद है परन्तु फिर भी वह वादी ने अपने वचन द्वारा प्रदर्शित नहीं की है । इसी कारण यह अप्रदर्शित व्यतिरेक नाम का वैधयं दृष्टान्ताभास है । इसी तरह जब कोई कोई ऐसा कहता है-शब्द अनित्य है क्योंकि वह कृतक होता है जो कृतक नहीं होता है वह अनित्य भी नहीं होता है जैसे आकाश । इस प्रकार से यहाँ पर जो यह व्यतिरेक आकाश में प्रकट किया गया है वह विपरीत रूप में प्रकट किया गया है प्रकट तो व्यतिरेक इस प्रकार से करना था कि जो अनित्य नहीं होता है वह कृतक भी नहीं होता है । इसीलिए यह विपरीत व्यतिरेक बाला वैधर्म्य दृष्टान्ताभास कहा गया है ॥ ३६॥ सूत्र-पक्षहेतोः साध्यस्य चोक्तलक्षणवपरीत्येतोपसंहारावपनय-निगमनाभासी ।। ३७ ।। संस्कृत टीका-साधर्म्यधर्म्य दृष्टान्ताभासस्य निरूपणं विधाय सम्प्रति सूत्रकार उपनयनिगमनाभासो निरूपणार्थ पक्षे हेतोरित्यादि सूत्रमाह-पक्षे साध्यविशिष्टे पर्वतादौ मिणि हेतोरुपसंहार उपनयः, साध्यस्य चोपसंहारो निगमन इति सुलक्षणमनयाः प्रतिपादितम् यथा-पर्वतोऽयं वह्निमान् धूमवत्वात्

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