Book Title: Nyayaratna Sar
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: Ghasilalji Maharaj Sahitya Prakashan Samiti Indore

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Page 271
________________ न्यायरत्न : न्यायरत्नावली टीका : षष्ठम अध्याय, सूत्र ५-६-७-८ १७१ विशेष और द्रव्य के साथ सदा रहने वाला गुण विशेष है। यह गुणविशेष कृष्ण शुक्ल आदि रूप होता है । सूत्र-संक्षेपतो नयोद्विविधो द्रव्यपर्यायार्थिक विकल्पात् ॥ ५ ॥ संस्कृत टीका-संक्षेपतः संक्षेपमाश्रित्य पंचम्यर्थे तसिल द्रव्यपर्यायार्थिक विकल्पात् इत्यत्र द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक विकल्पादिति द्वन्द्वान्ते श्रयमाणं पदं प्रत्येकमभिसंबध्यते इतिवचनात् ज्ञातव्यम् उत्तानार्थ मिदं सूत्रम् ।। ५ ।। हिन्दी व्याख्या - "संक्षेपतः " शब्द का अर्थ "संक्षेप विधि को आश्रित करके" ऐसा है। यहां पंचमी विभक्ति के अर्थ में यह तरीिल प्रत्यय हुआ है तथा - " द्रव्यपर्याय" इन पदों में द्वन्द्व समास हुआ है । द्वन्द्व समास के अन्त में आगत पद का सम्बन्ध प्रत्येक पद के साथ हो जाता है । इस कथन अनुसार आर्थिक पद का सम्बन्ध द्रव्य के साथ भी हो जाने से द्रव्यार्थिक ऐसा पद बनाया गया है। सूत्र का अर्थ स्पष्ट है || ५ || सूत्र - विस्तरतो नयोऽनेकविधः ॥ ६ ॥ संस्कृत टीका - प्रतिपतृणामभिप्रायविशेषाणां बहुत्वसंभवेन नियतसंख्यया निर्धारयितुमशक्यतया नया अनेकविधा एवं संभवन्ति प्रतिपतृपरामर्शाणामेत्र नयरूपत्वात्तत्रानेकविधत्वं स्वतः एव सिद्धयति किमत्र पर्यालोचनया ॥ ६ ॥ हिन्दी व्याख्या - विस्तार से नय का विचार करने पर वह अनेक प्रकार का है। क्योंकि प्रतिपत्ताजनों के अभिप्रायविशेष ही तो नयरूप कहे गये हैं और वे अभिप्रायविशेष अनेक होते हैं क्योंकि वस्तुगत एक-एक धर्म की पर्यालोचना प्रतिपत्ताजन अनेक रीति से करता है इसलिए अभिप्रायों को नियत संख्या से बद्ध नहीं किया जा सकता है अतः इसमें विशेष विचार की आवश्यकता ही नहीं है कि विस्तार की अपेक्षा नय अनेकविध क्यों कहा गया है क्योंकि नय में इस प्रकार के विचारों को लेकर विविधता अनेक प्रकारता तो स्वतः ही सिद्ध हो जाती है ॥ ६ ॥ सूत्र -- नैगमसंग्रह व्यवहार विकल्पैस्त्रेधा द्रव्यार्थिकः ॥ ७ ॥ संस्कृत टीका - द्रव्यार्थिकनमस्त्रिविधो गतितो नैगमनय संग्रह्नय व्यवहारनय भेदात् । नैगमादि नयानामेषां स्वरूपमन े सूत्रकारः स्वयमेवाभिधास्यति नोच्यतेऽतः ॥ ७॥ अर्थ - नेगमनय, संग्रहनय और व्यवहारनय के भेद से द्रव्यार्थिकनय तीन प्रकार का कहा गया है । सूत्रकार स्वयं ही नैगमादि नयों का वर्णन करने वाले हैं अतः इनके सम्बन्ध में यहाँ हमने कुछ भी नहीं कहा है ॥ ७ ॥ सूत्र -- गौणमुख्यभावेन पर्याययो द्वं व्ययोद्रव्य पर्याययोश्च विवक्षणात्मको नैगमनयः ॥ ८ ॥ संस्कृत टीका --- द्रव्याथिकनयस्य भेदस्वरूपं प्रथमं नंगमनयं प्ररूपयन्नाहसूत्रकारः द्वयोः परययोः, द्वयोः द्रव्ययोः, द्रव्यपर्याययोश्च प्रधानोपसर्जन भावेन येनाभिप्रायविशेषेण विवक्षा क्रियते सोऽभिप्राय विशेषो नैगमनय उच्यते एतेन एकस्य द्रव्यस्य पर्यायस्य वा मुख्यतयाऽपरस्य च पर्यायस्य पर्यायस्य द्रव्य वा यत्राप्रधानतया विवक्षणं भवति सोऽभिप्रायो नैगमरूपो मन्तव्यः नेकेगमाः बोधमार्गाः यस्य स नैगम इति व्युत्पत्तेः । द्वयोः पर्याययोः प्रधानगोणभावेन विवक्षणमित्थं यथा- "सत्वविशिष्टं चैतन्यमात्मनि वर्तते "

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