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न्यायरत्न : भ्यायरत्नावली टीका : षष्ठम अध्याय, सूत्र ११-१२
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सूत्र--सकालपदार्थ सार्थव्यापि महासत्ताधीनोऽभिप्रायविशेषो परसंग्रहः ।। ११ ।।
संस्कृत टीका-उक्तमिति परापरभेदाच्च संग्रहनयो द्विविधस्तत्र परसंग्रहनयस्य स्वरूपं विवक्षुः सूत्रकारः सकलपदार्थेत्यादि सूत्र कथयति–अनेन तेन प्रतिबोधितं यत् सकलपदार्य सार्थेषु व्यापि यत् महासत्ताख्यं सामान्यं तिर्यक सामान्यं तदधीनस्तदाश्रित्य जायमानो योऽभिशायविशेषः स एव परसंग्रहह्नयः यथा विश्वमेकं सदाविशेषात् अनेनाभिप्रायविशेषेण सकलविशेषेवुदानतामवलम्बमानेन सन्मात्ररूपतिर्यक् सामान्य ग्रहणतत्परेणाऽस्मिन् जगति एकत्वं गृह्यते तदेव च व्यवस्थाप्यते शुद्धद्रव्यरूपसत्तापेक्षया नत्रकत्वात् विशेषांशातां सन्मात्रान्तर्भावणेन संग्रहणाच्च ।। ११ ।।
___ अर्थ-सत्ता समस्त पदार्थों में पाई जाती है क्योंकि इसके विना कोई भी पदार्थ अपनी स्थिति नहीं रख सकता इसलिए इस महासत्तारूप सामान्य की सदृशपरिणमनरूप निर्यक् सामान्य की अपेक्षा से समस्त जीवादिक पदार्थ एक रूप हैं इस प्रकार से मानने वाला जो अभिप्राय विशेष है वह परसंग्रहरूप है ॥ ११ ॥
हिन्दी व्याख्या-परसंग्रहनय और अपरसंग्रहालय के भेद से संग्रहनय दो प्रकार का कहा गया है। उसमें से परसंग्रहनय के स्वरूप को प्रतिपादन करने की इच्छा वाले आचार्य ने इस किया है। इसके द्वारा उन्होंने यह समझाया है कि संसारस्थ समस्त जीवादिक पदार्थों में एक महासत्ता नाम का गुण है क्योंकि पदार्थ का स्वरूप ही सामान्य विशेषात्मक है। इस महासत्तारूप सामान्य गुण के द्वारा परसंग्रहह्नय समस्त पदार्थों को एकता में बाँधता है और कहता है कि विश्व सत्ता की अविशेषता से एकरूप है यहाँ एक सत्ता का ही एकछत्र राज्य है । इस प्रकार की उसकी मान्यता से कोई यह न समझ ले कि वह सकल विशेषों का निराकरण करता है, हां उसकी अपने विषय की स्थापना करते समय विशेषों की ओर उदासीनता भरी दृष्टि रहती है, इस तरह सन्मात्र रूप तिर्यक् सामान्य के ग्रहण करने में तत्पर चने हुए इस नय के द्वारा जगत में एकत्व गृहीत होता है और वही उसके द्वारा व्यवस्थापित किया जाता है क्योंकि वह शुद्ध द्रव्यरूप सत्ता की अपेक्षा उसमें रहे हुए एवत्व के ऊपर दृष्टि रखता है तथा जितने भो विशेषांश हैं उन सबका वह एक सत्तामात्र के द्वारा उसमें अन्तहित कर लेता है ।। ११ ।।
सूत्र-तद्विपरीताभिप्रायः तदाभासः ॥१२॥
संस्कृत टीका-गुणपर्यायरूप सकलविशेषाणां प्रत्याख्यानपरः सत्ताई तमात्राभ्युपगमविषयकोऽभिप्रायविशेषो भवति तदाभासः परसंग्रहनयाभासरूपः । एतेन सत्ताद्वैतमात्रमेवैक तत्त्वं न ततोऽतिरिक्ता विशेषाः केचन यथा वेदान्तिनोऽभिप्रायविशेषः स परसंग्रहनयाभासरूपो बोध्यः । ते हि सत्तातिरिक्तं वस्त्वन्तरं विशेषात्मकं नाभ्युपगच्छन्ति ॥१२॥
अर्थ-परसंग्रहनय के अभिप्राय से विपरीत जो अभिप्राय है, वह परसंग्रहनयाभास है ।।१२।।
हिन्दी व्याख्या-परसंग्रहनयाभास में बेदान्तवादी आदियों की मान्यता आती है क्योंकि इनके सिद्धान्तानुसार गुण पर्यायरूप कोई विशेष पदार्थ हैं ही नहीं उनके अस्तित्व का इनके सिद्धान्त में निराकरण किया गया है। अत: जितने भी अद्वैतवादी सिद्धान्त हैं वे सब इसी परसग्रहनयाभास को मानने वाले हैं ॥१२॥
सूत्र-द्रध्यत्वाद्यवान्तर सामान्य विषयकः स्वव्यक्तिषूदासीनोऽभिप्रायोऽपरसंग्रहः ।।१३।।
संस्कृत टीका-जीवेष्वजीवेषु च धर्माधकानेषु वर्तमानं द्रव्यत्व सामान्य जीवसत्केषु नरनारकादि पर्यायेषु अजीवसत्केषु घट कुण्डलादि पर्यायेषु च वर्तमानं पर्यायत्व सामान्यं स्वीकुर्वाणः स्व