Book Title: Nyayaratna Sar
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: Ghasilalji Maharaj Sahitya Prakashan Samiti Indore

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Page 263
________________ स्यामरत्न : भ्यायरलावली टीका, पंचम अध्याय, सूत्र ३६ अर्थ–साधर्म्यदृष्टान्ताभास की तरह वैधयं दृष्टान्ताभास भी नौ प्रकार का है जैसे-असिद्ध साध्य व्यतिरेक आदि ||३६॥ हिन्दी व्याख्या--साधर्म्य दृष्टान्ताभास के नौ प्रकारों का निरूपण करके अव सूत्रकार वैधर्म्य दृष्टान्ताभास के नौ प्रकारों का निरूपण करते हैं। सूत्र में आगत 'एवमेव' शब्द यहीं सूचित करता है कि जिस प्रकार से माधर्म्यदृष्टान्ताभास के साध्य धर्मविकल आदि नौ भेद कहे गये हैं उसी प्रकार से वैधर्म्य दृष्टान्त के भो साध्य साधन एवं उभय पदों के पहले असिद्ध शब्द का योग करके और बाद में व्यतिरेक शब्द का योग करके असिद्धसाध्यव्यतिरेक असिद्धसाधनव्यतिरेक असिद्ध उभयव्यतिरेना तथा माध्यादि पदों से पहले संदिग्ध पद का योग करके बाद में व्यतिरेक शब्द का योग करके संदिग्धसाध्य व्यतिरेक, संदिग्धसाधनव्यतिरेक, संदिग्धउभयव्यतिरेक तथा केवल अव्यतिरेक और आदि पद से गृहीत अप्रदर्शितव्यतिरेकः और विपरीत व्यतिरेक इस प्रकार से नौ भेद निष्पन्न हो जाते हैं। अन्वय साधर्म्य दृष्टान्त में जिस प्रकार से साधन के सद्भाव में साध्य का सद्भाव दिखाया जाता है उसी प्रकार से वैधयं दृष्ट्र में मान्य के . में का अाब लिखाया जाता है । जिस वैधर्म्य दृष्टान्त में साध्य का साधन का या दोनों का अभाव असिद्ध हो या संदिग्ध हो अथवा ठीक तरह से प्रकट न किया गया हो या विपरीत रूप से प्रकट किया गया हो दह वैधHदृष्टान्ताभास कहा गया है उसके नौ भेदों का विचार इस प्रकार से है । जब कोई ऐसा कहता है कि उन प्रमाणों में अनुमान भ्रान्त है क्योंकि वह प्रमाण है यहाँ पर व्यतिरेक इस प्रकार से बनाना चाहिए-जो भ्रान्त नहीं होता है वह प्रमाण भी नहीं होता है जैसा कि स्वप्नज्ञान अनुमान भ्रान्त है इस प्रकार के कथन में प्रान्त यह साध्य है और प्रमाणत्वात् यह हेतु है । व्यतिरेक में पहले साध्याभाव प्रदर्शित किया जाता है और बाद में हेवभाव प्रदर्शित किया जाता है बह यही इस प्रकार से प्रदर्शित किया गया है जो भ्रान्त नहीं होता है (यह साध्याभाव है) वह प्रमाण भी नहीं होता है (यह हेत्वभाव है) जैसा कि स्वप्नज्ञान (यह वैधयं दृष्टान्त है) यहाँ पर जो स्वप्नज्ञान को वैधयंदृष्टान्त के रूप में उपन्यस्त किया गया है वह असिद्ध व्यतिरेकवाला वधर्म्य दृष्टान्ताभास है क्योंकि स्वप्नशान में भ्रान्तत्वाभावरूप साध्यव्यतिरेक का सद्भाव नहीं है अर्थात् भ्रान्तता का अभाव नहीं है प्रत्युत भ्रान्तता ही है अतः स्वप्नज्ञान यह अमिद्ध साध्य व्यतिरेक वैधर्म्य दृष्टान्ताभास है। इसी प्रकार जब कोई ऐसा कहता है कि प्रत्यक्ष निर्विकल्पक है क्योंकि वह प्रमाण है । यहाँ पर निर्विकल्पक साध्य है और प्रमाणत्वात् यह हेतु है । जो निर्विकल्पक नहीं होता है वह प्रमाण भी नहीं होता है यह व्यतिरेक है इसमें दृष्टान्त अनुमान है। सो ग्रह अनुमानरूप वैधयंदृष्टान्त असिद्ध साधन व्यतिरेक वाला दृष्टान्ताभासरूप है क्योंकि अनुमान में प्रमाणत्वाभावरूप जो साधनव्यतिरेक है उसका अभाव है; कारण इसका यह है कि निर्दोष हेतु से उत्पन्न हुए अनुमान को प्रमाण माना गया है। इसी प्रकार जब कोई ऐसा कहता है कि गन्द कथंचित, नित्यानित्यात्मक है क्योंकि वह सत् स्वरूप है जो कथञ्चित् नित्यानित्यात्मक नहीं होता है वह सत्स्वरूप भी नहीं होता है जैसा कि स्तम्भ । यहाँ पर कञ्चित् नित्यानित्यात्मक माध्य है और इसका व्यतिरेक जो कथंचि नित्यानित्यात्मक नहीं होता है वह सत्स्वरूप भी नहीं होता है ऐसा है । इसमें दृष्टान्त स्तम्भ का दिया गया है । सो स्तम्भ में न साध्यव्यतिरेक है और न माधन व्यतिरेक है क्योंकि स्तम्भ कथंचिन्नित्यानित्यात्मक माना गया है और सत्स्वरूप माना गया है अतः स्तम्भरूप दृष्टान्त असिद्ध साध्य के अभाव वाला और असिद्ध साधन के अभाव वाला होने के कारण असिद्ध साध्य साधनोभन व्यतिरेकवाला वैधर्म्य दृष्टान्ताभास है । इसी प्रकार जब कोई ऐसा कहता

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