Book Title: Nyayaratna Sar
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: Ghasilalji Maharaj Sahitya Prakashan Samiti Indore

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Page 257
________________ न्यायरत्न : न्यायरत्नावली टोवा : पंचम अध्याय, सूत्र ३२-३३ १५७ व्याप्तिर्नास्ति किन्तु यत्र-यत्र कृनकत्वं तत्र-तत्र अनित्यत्वमेव व्याप्तिरस्ति, अतः कृतकत्वस्य हेतोःअन्यथानुपपनिरूप सम्बन्धोऽनित्यत्वेनैव साधं घटते न नित्यत्वेन सार्धम् । अनित्यत्वं च नित्यत्व विरोधि, एवकारेणाऽनैकान्तिक हेत्वाभासस्य व्यावृत्तिः क्रियते ॥३१।। हिन्दी अनुवाद-जिस हेतु का अविनाभाव रूप नियम साध्याभाव के साथ ही निश्चित होता है वह हेतु विरुद्ध हेत्वाभास कहा जाता है । जैसे-जब कोई ऐसा कहता है कि--शब्द नित्य है क्योंकि वह कृतक है तो यहाँ कृतक हेतु है उसका अविनाभाव सम्बन्ध अपने नित्यरूप साध्य के साथ नहीं है । ऐसी ध्याप्ति नहीं बनती है कि जहां-जहाँ कृतकत्व होगा वहाँ-वहाँ नित्यत्व होगा। किन्तु व्याप्ति तो ऐसी बनती है कि जहाँ-जहाँ कृतकत्व होगा-वहाँ-वहाँ अनित्यत्व होगा। इस तरह कृतकत्व हेतु का साध्य जो नित्यत्व है उससे विरुद्ध अनित्यत्त्व के साथ ही इस हेतु की व्याप्ति होने के कारण यह हेतु विरुद्ध है। प्रश्न-यहाँ गर एवकार का प्रयोग किसलिये किया गया है ? उत्तर-एवकार का प्रयोग अनेकान्तिक हेत्वाभास की निवृत्ति के लिये किया गया है। क्योंकि अनेकान्तिक हेत्वाभास भी अपने साध्याभाव के साथ रहता है। प्रश्न-जब अनेकान्तिक हेत्वाभास अपने साध्याभाव के साथ रहता है तो फिर विम्द्ध हेल्याभास और अनकान्तिक हेत्वाभास में अन्तर क्यों माना गया है ? उत्तर-विरुद्ध हेत्वाभास तो सपक्ष से व्यावृत्त होता हुआ अपने साध्याभाव के साथ रहता है और अनेकान्तिक हेत्वाभास पक्ष और सपक्ष में रहता हुआ विपक्ष के साथ रहता है। बस, यही इन दोनों में अन्तर है। सूत्र-पक्ष सपक्षवद्विपक्षेऽपि वृत्तिमान कान्तिकः ।।३२।। संस्कृत टोका-एकस्मिन्नेव अधिकरणं अन्तो निश्चयो नियतरूपेण वृत्तित्वं यस्यासो ऐकान्तिकः न ऐकान्तिकः, अनैकान्तिकः- अनियत्तिः न निश्चितरूपेण साध्याधिकरण एव वृत्तिः अपितु साध्याधिकरणे साध्याभावाधिकरणे च यो वर्तते सोऽनकान्तिकः यथा-पर्वतोभ्यं धूमवान् बढे:-अत्र साध्याधिकरण पर्वतः तत्रापि वह्निरूप हेतु सद्भावः सपक्षश्च महानसादिस्तत्रापि हेतुसद्भावः विपक्षश्चायोगोलकस्तत्रापि बलिरूपहेतु सद्भावः ।। ३२ ॥ हिन्दी अनुवाद-पक्ष और सपक्ष में रहता हुआ भी जो हेतु विपक्ष में भी रहता है वह अनकान्तिक हेत्वाभास है । साध्ययुक्त एक ही अधिकरण में जिसकी नियत रूप से वृत्ति होती है वह ऐकान्निक है। जो इस वृत्ति का नहीं होता है वह अनेकान्तिक है-अनियत वृत्ति वाला है। ऐसा हेतु साध्याधिकरण में भी रहता है । और साध्य के अभाव वाले अधिकरण में भी रहता है। जैसे किसी ने ऐसा कहायह पर्वत धूमवाला है क्योंकि यह अग्निवाला है। यहाँ पर साध्याधिकरण पर्वत है उसमें वह्निरूप हेतु रहता है और साध्य का जो अधिकरण नहीं है ऐसे अयोगोलक में भी यह हेतु रहता है अतः यह पक्ष सपक्ष में रहता हुआ विपक्ष में भी रहने के कारण अनेकान्तिक कहा गया है ।। ३२ ।। सूत्र--संदिग्ध निश्चित विपक्षवृत्ति भेदादसो द्विविधः ॥ ३३ ।। संस्कृत टीका-असो-अनैकान्तिको हेत्वाभासो द्विविधः-संदिग्ध विपक्ष वृत्तिः निश्चित विपक्षत्तिश्चेति । यस्य हेतोधिपक्षे वृत्तिः संदिग्धा स्यात् स निश्चित विपक्ष वृत्तिश्च । जिनः सर्वज्ञो नास्ति

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